Spanish Flu: जंगी बुखार ‘हल्वी साहब की गोली’ के भरोसे

याद करें कुछ दिन पहले यूनाइटेड स्टेटस कमीशन ऑन इन्टरनेशनल रिलीजियस फ़्रीडम (USCIRF) जो कि अमेरिका सरकार की एक मान्यता प्राप्त संस्था है, की रिपोर्ट आई थी। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में पिछले कुछ सालों से मुस्लिम समुदाय या इस्लाम मानने वालों के साथ हो रहे व्यवहार के कारण भारत को धार्मिक स्वतन्त्रता की अंतर्राष्ट्रीय सूची की काली सूची में डालने की सिफ़ारिश की गई है। अपने यहां उस रिपोर्ट और सिफ़ारिश का अच्छा खासा विरोध भी हुआ। बता दें कि विरोध करने वाले वही लोग थे जिन्हों ने अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव के समय ट्रम्प के जीतने के लिए क्या नहीं किया। प्रार्थनाएं, हवन, यज्ञ किए थे और जीतने पर खुशियां भी मनाई थी। आज वही लोग, उसी ट्रम्प की मान्यता प्राप्त संस्था की रिपोर्ट का जोरदार विरोध कर रहे हैं।

उनको लग रहा है, अमेरिका और ट्रम्प उनके इन काले कामों की हिमायत नहीं कर रहा है। जबकि यह सब जानते हैं, गत 6-7 सालों में इस देश में मुसलमानों, जो कि धार्मिक अल्पसंख्यक भी हैं, के साथ कैसा व्यवहार किया गया? घर वापसी, लव जेहाद, गौ रक्षा, समान संहिता आदि-2 के नाम पर कितना अत्याचार किया गया है? कितना भेदभाव बरता जा रहा है, शासन-प्रशासन की ओर से भी ? उस पूरे समाज के आत्म सम्मान को रौंदा जा रहा है, उसके स्वाभिमान और आत्म विश्वास को तोड़ा जा रहा है। उस पूरी कौम को देशद्रोही करार दिया जा रहा है। इस या उस बहाने उन पर पुलिस का खुला अत्याचार और लिंचिंग आदि के बाद वीडियो बना कर मीडिया में बांटे जा रहे है ताकि उनमें दहशत फेल जाए। उनके संवैधानिक अधिकारों का खुले आम हनन किया जा रहा है। इतना सब कुछ होने के बावजूद इस रिपोर्ट पर अपने प्रिय और महान दोस्त की आलोचना और विरोध किया जा रहा है।

इस देश में मुसलमानों को धर्म के आधार पर किस तरह चिन्हित व प्रताड़ित किया जा रहा है, इस बात का एक ताजा तरीन उदाहरण है, आज का ‘कोरोना’। पूरे विश्व के सैंकड़ों देशों में दहशत फैलाने वाले वायरस ‘कोविड-19’ (COVID 19) को भी तबलीगी (मुसलमान) और गैर-तबलीगी में बांट कर पेश किया गया। यहां तक कि केंद्रीय स्वास्थ्य एवं गृह मंत्रालय के प्रवक्ता हर रोज प्रेस कान्फ्रेंस कर निश्चित तौर पर बताते रहे हैं, कितने जमाती और कितने अन्य हुए है कोरोना (Corona) से बीमार। यहां तक कि पूरे देश में दूर-2 तक, जहां एक भी मुसलमान नहीं हैं, में भी उनके प्रति नफरत भर दी। ऐसे प्रचार किया जाता रहा जैसे कि कोरोना सिर्फ और सिर्फ उनके कारण फैला है। यदि वे न होते तो देश कोरोना मुक्त होता। इस मामले को इस खतरनाक तरीके से पेश किया जाता रहा, जैसे कि इसका दोषी पूरा मुस्लिम समुदाय हो।

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उस से पहले NRC, CAA तथा NPR के विरोध में हो रहे आन्दोलन को कुचलने के उदेश्य से तमाम कौम को प्रताड़ित किया जाता रहा। इसी सिलसिले में अलीगढ़ मुस्लिम युनीवर्सिटी, जामिया मिलिया इस्लामिया के अतिरिक्त पूरे देश के मदरसों और अन्य मुस्लिम शिक्षा संस्थानों को निशाने में लिया और उन संस्थानों में अध्ययन करने वालों पर हर तरह के अत्याचार किए गये। हद तो यह कि यह सब शासन-प्रशासन की मर्ज़ी से किया गया।

यह ठीक है कि इस तरह के प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदाओं, यद्यपि इन्हें आपदाओं के नहीं अपितु चुनौतियों के रूप में लिया जाना चाहिए, के प्रभाव भी समाज के भिन्न-2 वर्गों पर अलग-2 पड़ते हैं। इनके प्रभावों के विभिन्न अध्ययनों को देखें तो हम पाते हैं कि भूतकाल में घटित घटनाओं/दुर्घटनाओं व आपदाओं का समाज के अलग-2 वर्गों के सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों से सीधा सम्बन्ध रहा है। साथ ही साथ समाज की संरचनाओं पर भी उनका सीधा असर पड़ता है। इस का प्रमाण हमें आज से पहले की आपदाओं के अध्ययन से मिल जाता है।

मानव अस्तित्व के बाद से ही मनुष्य को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करते रहना पड़ा है। संघर्ष चाहे प्रकृति के विरुद्ध हो या फिर सह-मानव के साथ हो। आज से पहले की आपदाओं में बड़ी आपदा के रूप में दर्ज 1918-20 का ‘स्पेनिश फ्लू’ (Spanish Flu) या ‘जंगी बुखार’ या लाहौल का ‘मोडरोग’ का बहुत व्यापक प्रभाव पड़ा। जिसने भविष्य की दुनिया की नई व्यवस्था की नींव रख दी थी।

स्पेनिश फ्लू (Spanish Flu) यद्यपि अमेरिका से शुरू हुआ था, माना गया है। परन्तु उस समय दुनिया में प्रथम विश्व महायुद्ध चल रहा था। इस लिए यह यूरोप के रास्ते पूरी दुनिया में फ़ेल गया था। इसका नाम स्पेनिश फ्लू (Spanish Flu) इस लिए पड़ा क्योंकि दुनिया के लगभग समस्त देश उस महायुद्ध की लड़ाई में किसी न किसी रूप और किसी न किसी गुट के साथ सम्बद्ध थे। सिर्फ स्पेन ऐसा देश था जो युद्ध में सीधा हिस्सा नहीं ले रहा था। इस लिए इसे स्पेनिश फ्लू नाम दे दिया गया। यद्यपि तब भी आज की तरह अमेरिका में काफी मानव जीवन का नुकसान हुआ था।

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भारत भी उस विश्व महामारी से अछूता नहीं रह सका। क्योंकि तब भारत पर ब्रिटेन का शासन था और ब्रिटेन युद्ध में एक महत्वपूर्ण पार्टी था। इस लिए भारत को भी ब्रिटेन के उपनिवेश के रूप में युद्ध में शामिल होना पड़ा। यहां के अधिकतर युवाओं को सेना में सहायक के रूप में लिया गया था। जिन का काम रसद आदि पहुंचाने के लिए कुली के रूप में किया जाता था। जिन्हें ‘रंगरूट’ के नाम से जाना गया। रंगरूट शायद अंग्रेज़ी के ‘रिक्रूट’ से बना था। उन रंगरुटों में लाहौल से भी कुछ युवा थे। इस तरह स्पेनिश फ्लू मेरे कुल्लू व लाहौल-स्पिती तक भी पहुंच गया, जिसे यहां ‘मोडरोग’ (बड़ी बीमारी) या छद (बुखार) कहा गया। उस महामारी ने इस छोटे से क्षेत्र के साथ-2 पूरे देश में बहुत जानी-माली नुकसान किया।

एक नये अध्ययन के अनुसार 1918-20 की महामारी (Spanish Flu) ने सिर्फ भारत में 5-10 करोड़ लोगों की जानें ली थी। जबकि 1920 में दुनिया कि जनसंख्या का अनुमान 160 करोड़ का है। उसी विश्व की आज की जनसंख्या 780 करोड़ है। उस हिसाब से देखा जाए तो आज कितनी बड़ी तबाही करेगा यह कोरोना, अनुमान लगाते हुए डर लगता है। तब भी अमेरिका में, जहां से उस विश्व महामारी शुरुआत हुई थी, में सिर्फ 6 लाख लोगों की जानें गई थीं, जबकि भारत में 5-10 करोड़। उसके मुक़ाबले में प्रथम विश्व महायुद्ध में पूरी दुनिया में 2 करोड़ लोग मारे गए थे और 2 करोड़ के करीब ही घायल हुए थे। इसी प्रकार से द्वितीय विश्व महायुद्ध में कुल मौतें 7 करोड़ और घायलों की संख्या 5-10 करोड़ की थी।

1918-20 की विश्व महामारी (Spanish Flu) में हुई मौतों का आंकड़ा देते हुए अमित कपूर (इकोनोमिक टाइम्स) भारतीय समाज की सामाजिक, आर्थिक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के आधार पर निष्कर्ष निकालते हुए लिखते हैं कि इस फ्लू से भारत में 5-10 करोड़ लोगों की जानें गई थी। इसी अध्ययन में वह यह भी लिखते हैं कि उस महामारी में मरने वालों की मौत की दरों में जातीय तथा प्रजातीय आधार पर बड़ी भिन्नता थी। उनके निष्कर्ष के अनुसार भारत में जहां उच्च जतियों में मौत की दर 19 व्यक्ति प्रति हजार जनसंख्या थी, वहीं पर अछूतों यानि आज के अनुसूचित जतियों के मामले में यह 61 व्यक्ति प्रति हज़ार थी। उसी तरह प्रजातीय आधार पर जहां अंग्रेजों और भारतीयों के मामले में यह क्रमश: 7 व्यक्ति प्रति हजार और 21 व्यक्ति प्रति हज़ार था।

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इस प्रकार के अध्ययनों से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इस तरह की महामारियों और प्राकृतिक/मानव निर्मित आपदाओं में मौतें लोगों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि पर भी निर्भर करती है। समाज के जिस वर्ग की सामाजिक स्थिति ऊंची थी उनकी आर्थिक स्थिति भी स्वाभाविक तौर पर अच्छी थी और जो निम्न वर्ग के थे उनकी आर्थिक स्थिति भी ठीक नहीं थी। जिन वर्गों की आर्थिक हालत अच्छी थी उनके भोजन की पोषकता भी अच्छी थी परिणाम स्वरूप उनके शरीर में बीमारियों से लड़ने शक्ति भी अधिक थी। जिनकी सामाजिक स्थिति कमजोर थी उनकी शरीर में रोग रोधक शक्ति कम थी, परिणाम अधिक मौतें। इसी तह ब्रिटिश और भारतीयों के बारे में भी है। अंग्रेज हर प्रकार से भारतीयों से बेहतर दशा में थे इस लिए उनके समाज की मौत की दर भी भारतीयों के मुक़ाबले में कम रही।

स्पेनिश फ्लू (Spanish Flu), विश्व महामारी के 100 साल बाद आज कोरोना के दौर में भी ऐसा ही कुछ हो सकता है, क्या ? शायद नहीं, तब की और आज की स्थितियों में बहुत फर्क है। तब की कहावत थी ‘दिल्ली दूर है’, लेकिन आज पूरी दुनिया एक गांव बन गया है। सूचना क्रांति के चलते हर सूचना तक बहुतों की पहुंच बनी है। आर्थिक दृष्टि से भी बहुत साधन सम्पन्न हुई है, दुनिया। आज देश में संवैधानिक व्यवस्था के चलते उस दौर के अछूतों, जिन्हें आज अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति कहा जाता है, की स्थिति में काफी अंतर आया हुआ है। 1918-20 के दौर के लाहौल उस बिमारी की दवाई सिर्फ केलांग में मोरवियन मिशनरियों के पास मिलती थी, जो ‘हल्वी साहब की गोली’ के नाम से प्रसिद्ध हुई थी।