कर्नाटक सरकार के 1000 स्कूलों को कन्नड़ के बजाय अंग्रेज़ी माध्यम बनाने के निर्णय का कन्नड़ लेखकों और बुद्धिजीवियों ने विरोध किया है। जो सही भी और उचित भी है। कर्नाटक सरकार का यह फैसला बहुलतावाद व संघवाद के विरुद्ध है।

आज उसे आगे बढ़ाना चाहता हूं, क्योंकि भाषा एक पहचान देती है इस लिए उसकी सुरक्षा भी सुनिश्चित होनी चाहिए। कर्नाटक से पहले देश कुछ अन्य राज्यों के सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा दी जाती है। जिनमं0 पंजाब में 1886, उत्तर प्रदेश में 5000, हरियाणा में 418, उत्तराखंड में 15000, तेलेंगाना में 5000, आंध्र प्रदेश में 8420, मध्य प्रदेश के हर ब्लॉक में एक, दिल्ली में 146, राजस्थान में 134, गुजरात में पायलेट प्रोजेक्ट के तहत 24 तथा तमिल नाडु ने कमजोर वर्ग के बच्चों के लिए सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम की व्यवस्था की है।

जिन राज्यों ने माध्यम बदला है उनका कहना है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या कम हो रही है। उनका तर्क यह भी है कि इस तरह सरकारी स्कूलों में दाखिले बढ़ेंगे और स्कूल फिर से आबाद होंगे।

लेकिन यहां बता दें कि केरल के किसी सरकारी स्कूल में अंग्रेजी माध्यम नहीं है। फिर भी 2017-18 में जहां 1.40 लाख दाखिले हुए थे इस वर्ष (2018-18-9) यह आंकड़ा 1.80 लाख हो गया है।

कर्नाटक सरकार को यह नहीं भूलना चाहिये कि वह एक चुनी हुई सरकार है तथा संसदीय लोकतान्त्रिक व्यवस्था का हिस्सा भी है। इस लिए उसका निर्णय ‘एक भाषावाद’ के नहीं अपितु ‘बहु भाषावाद’ के पक्ष में होना चाहिये।

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यदि सरकार की मनोकामना पूरी हो जाये तो उस संघर्ष का का क्या होगा, जिसके परिणाम स्वरूप कन्नड़ भाषी प्रदेश कर्नाटक बना था।

इस मामले में मैं कर्नाटक सरकार के निर्णय के विरोध में, कन्नड़ लेखकों और बुद्धिजीवियों के पक्ष में खड़ा हूं।

इन चुनी हुई सरकारों से पूछा जाना चाहिए, क्या इस समस्या का हल यही है ?