पीपीई से सुसज्जित स्वास्थ्य कर्मचारियों द्वारा ‘सेनीटाइज़िंग’ के नाम पर जानवरों की तरह झुंडों में बैठा कर मजदूरों (Labour) मतलब जीवित इन्सानों पर स्प्रे पम्पों के द्वारा रसायनिक छिड़काव। कोरोना (Corona) के उपचार के नाम पर गरीबों, मजदूरों और आम आदमी को लॉकडाउन (Lockdown) कर भूखे प्यासे मरने के लिए छोड़ देना। भूखे प्यासे मरने के बजाय अपने गांव जाने की मांग करने वालों को पुलिस से पिटवाना। लाख वादों व दावों के बावजूद कुछ ही भाग्यवानो को मिल पा रही हैं, ट्रेन व बस की सेवाएं। शेष करोड़ों को पैदल जाना पड़ रहा है। उनमें भी कुछ तो सड़क हादसों में, कुछ ट्रेन से कट कर मारे जा रहे हैं। उनमें पता नहीं कितने सौभाग्यशाली होंगे जो अपने घर पहुंच पाएंगे? क्या यही है समानता और बराबरी। कहने को तो है हम सब बराबर हैं। लेकिन धरातल पर वास्तविक रूप में ऐसा नहीं है। ‘सब बराबर है’ लेकिन कुछ अधिक बराबर हैं। इन परिस्थितियों को देखते हुए एक सवाल ‘कौन कहता है, आदमी और आदमी बराबर होता है’, अनायास ही दिमाग में उठने लगता है।
‘सोशल डिस्टेन्सिंग’ के नाम पर पक्की सड़कें खोद देना, ‘अल्ट्रावायलेट किरणों’ से खाने पीने की वस्तुओं का ‘सेनिटाइज़िंग’ और गौमूत्र (Gaumutra) से कोरोना का उपचार, वह भी सरकार द्वारा या उसके ध्यान में रहते हुए। 21वीं सदी में सुनने में अवश्य ही कुछ अटपटा लग सकता है, लेकिन है यह सच्चाई। ऐसा ही कुछ अपने देश में हो रहा है। अभी कुछ दिन पहले ही हरियाणा में सरकार के एक विभाग के कर्मचारियों ने दिल्ली से सम्पर्क सड़क को जेसीबी लगा कर खुदवा डाला ताकि दिल्ली से सम्पर्क खत्म हो जाए। न कोई वहां से आए और न ही कोई जाए। उसी प्रकार मध्य प्रदेश में भी फलों व सब्जियों को सेनीटाइज़ करने के लिए अल्ट्रावायलेट किरणों के प्रयोग की योजना बनी थी।

‘कोरोना’ के ‘कोविड-19’ (COVID19) का पता लगने के 5 महीने, अपने देश में पहला मामला दर्ज होने के चार महीनों और तालाबंदी (Lockdown) या लॉकडाउन जैसे अत्यधिक कठोर उपचार के शुरू किए जाने के 60-65 दिन बाद भी यह अव्यवस्था की स्थिति प्रश्न चिन्ह खड़ा करती है, देश में किसी शासन-प्रशासन के अस्तित्व में होने पर?

1 मई, अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस (International Labour Day) के दिन लॉकडाउन घोषित किए जाने के बाद फिर ट्रेनें चलाई गई। श्रमिक स्पेशल ट्रेनें (Shramik Special Trains), सत्तासीन पार्टी के सांसद ने ट्रेन को झंडी दिखाई। लेकिन दिखाई गई झंडी भाजपा का पार्टी झण्डा था, दूसरा मजदूरों (Labour) को टिकटें भी अपनी जेब से लेनी पड़ी थीं। झण्डा भी ऐसे दिखाया गया जैसे देश में पहली बार ट्रेन चलाई गई हो। लोगों को अवश्य ज्ञान होगा कि 1937 में पहली मालगाड़ी तथा 1953 में पहली बार जब यात्री गाड़ी चलाई गई थी, तब भी अंग्रेजों ने इस तरह श्रेय लेने का प्रयास नहीं किया होगा, उन में से कोई जीवित होता तो आज के हमारे हाल देख कर अवश्य रोता।

नगरों और महानगरों से मजदूरों (Labour) को वापस गांव भेजा जा रहा है। उन शहरों से भेजा जा रहा है जहां वे सालों पहले एक बेहतर ज़िंदगी की तलाश में आए थे। उन गांवों को वापस भेजा जा रहा है, जहां से वे भुखमरी, बीमारी और गरीबी से बचने के लिए निकले थे। वास्तव में वे अपनी मेहनत से उस में सफल भी हुये थे। अपना पेट तो पाल ही रहे थे साथ में पीछे रह गए अपने वृद्ध माता-पिता, बहन-भाई, बीबी बच्चों का भी भरण पोषण कर भी रहे थे।

 

यह ठीक है कि आज के मानव अधिकारों के रक्षक बने पश्चिम के देशों ने 17वीं सदी से लेकर मनुष्यों के साथ कोई बहुत अच्छा व्यवहार नहीं किया। एशिया और अफ्रीका महाद्वीपों के काले-पीले-भूरे लोगों की मंडियां लगाईं। जिसमें इन लोगों को जानवरों की तरह नहीं गुलामों की भांति खरीदा बेचा जाता था। आज भी समय की दीवारों पर ऐसे फोटो मिल जायेंगे, जिनमें एक तरफ तो ज़ंजीरों में जकड़े जानवरों से बदतर दशा में मनुष्य और दूसरी ओर सामने एक गौरा सिर पर हेट पहने, हाथ में हंटर लिए हुये खड़े दिखाई दे जाते हैं। लेकिन समय के साथ-2 काफी परिवर्तन आये। औध्योगिकरण हुआ परिणाम स्वरूप शहरीकरण भी हुआ। विकास के नाम पर गांव उजड़ते गए, गांव के सिर पर शहरों का विकास किया गया। विकास के नाम पर ही शहरों के चारों तरफ झुग्गी-झौंपड़ियों के रूप में गरीबों व मजदूरों (Labour) की बस्तियां बसाई गई जिस से शहर मध्यम वर्ग को सस्ते घरेलू नौकर मिलते रहें। गांव से नेता शहर की तरफ आये तो अपने साथ, अच्छी जिंदगी का भरोसा देकर मतदाताओं को लाना भी नहीं भूले। उन मजदूरों को लेकर मुंबई की तरह ‘धारावियां’ स्थापित की गई। जहां हर तरह का जैविक, सामाजिक तथा आपराधिक संक्रमण को खुले पनपने दिया गया।

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मजदूरों (Labour) का यह पलायन सिर्फ गांवों से शहरों की तरफ ही नहीं था। यह एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र, एक प्रांत से दूसरे प्रांत को भी हुआ था। अति पिछड़े व अति गरीब राज्यों से मजदूर विकसित व धनी राज्यों की ओर रोजगार की तलाश में गए थे। इस महा प्रवास-अप्रवास का मुख्य कारण था सरकारों का रुख और सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक नीतियां, जो कुछ ही लोगों के हितों को ध्यान में रख कर बनाई और चलाई जाती रही। इस मामले को गहरे से देखें तो साफ पता लगता कि देश के नीति निर्माताओं ने अधिक ध्यान पूंजीपतियों तथा समाज के प्रभु वर्ग का ही रखा। जिसका परिणाम यह निकला कि जिन राज्यों के पास संसाधनो के अनंत भंडार थे, खनिज के भंडार, जल, जंगल और जमीन उनको कुछ कम ही मिल पाया। जिनका दोहन नहीं, शोषण धनिकों के हित में किया गया और वहां के मूल निवासियों का जीवन अत्यधिक दुखों भरा बना दिया गया।

जिसके उदाहरण आज के झारखंड, छतीसगढ़, उड़ीसा, बंगाल और पूर्व के उत्तर प्रदेश व बिहार आदि हैं। यह तो मेरा भी व्यक्तिगत अनुभव रहा कि दसियों साल पहले भी आज के झारखंड के दुमका ज़िला से हजारों मजदूर (Labour) धुर लाहौल जैसे कठिन एवं ठंडी जगह तक पहंचते थे। ताकि वे मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पाल सकें। उन मजदूरों को सीमा सड़क संगठन के साथ जुड़े हुए ठेकेदार लाते थे और पूरा साल काम करवाने के बाद वापसी पर घर पहुंचने के लिए किराया तक नहीं देते थे। वे कम उम्र युवा सड़क के काम के अतिरिक्त स्थानीय लोगों के काम भी करते थे। उस कमाई पर भी ठेकेदार का कब्जा होता था।

Jharkhand Labourers died in Rohtang

ये वही झारखंड, बिहार के मजदूर (Labour) हैं जिन्हों ने दुनिया की सबसे ऊंची सड़क जो ‘बरलचा ला’ और ‘शिंकों ला’ होते हुए दिल्ली को लेह से मिलाती है, को बनाने में सीमा सड़क संगठन का साथ दिया है। बाद में भले ही श्रेय दिल्ली (Delhi) में वातानुकूलित कार्यालय में बैठे सब से बड़े अधिकारी ने लिया हो। इस प्रकार के निर्माण कार्यों के दौरान न जाने कितने मजदूर (Labour) मारे जाते हैं इसका कहीं कोई लेखा जोखा नहीं मिलता। क्योंकि व्यवस्था ही ऐसी है कि उसे विशिष्ट, अतिविशिष्ट और संगठित लोगों को खुश करने से फुर्सत ही नहीं मिलती।

यहां एक किस्सा सुनाना चाहता हूं, घटना 100% सच्ची है, क्योंकि यह मेरे साथ बीती हुई है। घटना नवम्बर 2009 की है, मैं किसी काम से दिल्ली में था। 22 नवम्बर के टाइम्स ऑफ इंडिया (Times of India) के बीच के पेज पर एक कॉलम में 4-5 लाइन का एक समाचार था, रोहतांग में ग्लेशियर के नीचे 14 मजदूर दब गए। क्योंकि 18-19 नवम्बर को लाहौल तथा रोहतांग में बर्फबारी हुई थी।

Ali Anwar Ansari questions in Rajya Sabha

मैं उसी दिन वापस कुल्लू (Kullu) के लिए चल पड़ा। दूसरे दिन कुल्लू पहुंचने के बाद ही उस विषय पर खोज खबर शुरू कर दी। बहुत से लोगों से चर्चा भी की और सहायता व सहयोग की मांग की। क्योंकि दुर्घटना के स्थान से तब तक बर्फ में दफ़न मृत शरीर भी नहीं निकाले गए थे। लेकिन किसी का भी रिस्पांस सकारात्मक नहीं था। वे चौदह युवा क्योंकि गरीब, झारखंडी और मुसलमान थे, इस लिए किसी को कुछ लेना देना न था। परन्तु मैंने अपनी मुहिम जारी रखी और दैनिक समाचार पत्र महान टाइम्स, बिलासपुर के सहयोग से मामले को आगे बढ़ाया।

यह सत्यकथा कुछ यूं शुरू होती है। हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) का ज़िला लाहौल-स्पीति का लाहौल क्षेत्र सर्दियों में 6 महीने के प्राकृतिक तालाबंदी पर जाने की तैयारी कर रहा था। रोहतांग दर्रा जो समुद्र तल से 13050 फुट ऊंचा है, आम तौर पर अक्तूबर के बाद बर्फबारी के कारण कभी भी बंद हो जाता है। अब तो नवम्बर का महीना भी आधा बीत चुका था। अब तक तो सर्दियों में वहां रहने वालों के अलावा सब लोग कुल्लू की तरफ आ जाते हैं। उनमें वे लोग भी शामिल हैं जो कि गर्मियों में काम करने के लिए लाहौल और लाहौल से आगे लेह की तरफ सीमा सड़क संगठन के साथ ठेका मजदूर की हेसीयत से काम करने के लिए ‘बरलचा ला’ तथा ‘शिंकों ला’ से वापस आ जाते थे। नवम्बर की बर्फ पड़ चुकी थी और स्थानीय लोग व मजदूर अधिकतर लाहौल से बाहर आ चुके थे। रोहतांग पर भी बर्फ पड़ चुकी थी, रोहतांग बंद हो चुका था। लेकिन दुमका के रहने वाले कुछ मजदूर जो सीमा सड़क संगठन के साथ लेह की तरफ काम करने के लिए गये थे, लाहौल में फंस गए थे।

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LC DHissa urge centre to give justice to Jharkhand Labourers

जैसे ऊपर बताया जा चुका है कि 18-19 नवम्बर को काफी बर्फवारी हो चुकी थी। 20 नवम्बर को धूप निकलने पर वे लोग जिस हाल में थे रोहतांग (Rohtang) पार करने के लिए निकल पड़े। उन्हें बर्फ की ठीक जानकारी थी नहीं फिर भी रोहतांग क्रॉस करके वे लोग कुल्लू की तरफ राहनी नाला स्थानीय भाषा में ‘मकुड़सेर नहड़ा’ पहुंच भी गए, लेकिन तभी ताजी पड़ी बर्फ टूट पड़ी और एक बड़े ‘एवलांच’ के रूप में उन 14 झारखंडी मजदूरों (Labour) को अपने में लपेट ले गया।

महान टाइम्स के सहयोग से कड़े संघर्ष के बाद सांसद अली अनवर अंसारी के द्वारा मामला राज्य सभा (Rajya Sabha) में शून्य काल में उठवाया। उसके बाद जाकर प्रदेश में बाहर से आने वाले मजदूरों का पंजीकरण किया जाना शुरू किया गया। जब कि तब तक उन 14 युवाओं में से सिर्फ 6 के शव निकाले गए थे। उसके दो-तीन दिनो के पश्चात चार शव और मिले। लेकिन न तो हिमाचल प्रदेश और न ही झारखंड सरकार ने इस मामले में कोई कार्यवाही की। बहुत चीखने चिल्लाने के बाद उन 10 युवाओं के शवों को नगर पंचायत, कुल्लू द्वारा कुल्लू के बेकार पड़े कब्रिस्तान में लावारिस दफना दिया गया।

Labour question asked in Rajya Sabha

उसके कुछ साल बाद, भागते हुये चार किशोर पुलिस द्वारा पकड़े गए थे। छानबीन करने पर पता चला कि वे झारखंड के रहने वाले थे और लाहौल में घरेलू नौकरों का काम करते थे। मालिक लोग उन से गुलामों सा व्यवहार करते थे। उन्हें भरपेट खाना नहीं दिया जाता, काम सामर्थ्य से अधिक लिया जाता था। यह भी पता चला कि झारखंड आदि पिछड़े क्षेत्रों से गरीब आदिवासी बच्चों को देश के धनाढ्य क्षेत्रों में ले जा कर बेच दिया जाता है।

यहां गौर करने योग्य एक बात बता दें, लाहौल भी देश के उन क्षेत्रों में से एक है जिन्हें अनुसूचित क्षेत्र घोषित किया गया है। झारखंड (Jharkhand) और हिमाचल प्रदेश का ज़िला लाहौल-स्पिती (Lahaul Spiti) दोनों भी देश के उन नौ राज्यों में हैं जो  संविधान की पांचवीं अनुसूची में सम्मिलित हैं। दोनों क्षेत्रों की प्रस्थिति एक समान, अनुसूचित क्षेत्र और यहां के लोग अनुसूचित जनजाति के। लेकिन इस बात का क्या किया जाए कि यहां भी एक के द्वारा दूसरे का शोषण उसी सफाई से जारी है जिस तरह देश अन्य भागों में मुख्यधारा में है। यहां भी वही शैतानी मानसिकता। एक चीज और दोनों क्षेत्रों को उनके पिछड़ेपन के कारण ही अनुसूचित क्षेत्र घोषित किया गया था ताकि उनका विकास ठीक से किया जा सके। लेकिन जैसे यह प्रकृति का नियम है, बड़ी मच्छली छोटी को निगल जाती है, समर्थों ने असमर्थों के अधिकार लपक लिये। उदाहरण सामने था, एक अनुसूचित जनजाति का बच्चा दूसरे अनुसूचित जनजाति के व्यक्ति के घर में गुलाम ? यह कैसा सामाजिक न्याय है, समानता के अधिकार को ‘मौलिक अधिकार’ मानने वाले संविधान के अंदर चलने वाली, कैसी व्यवस्था है ? 18वीं व 19वीं सदी में जिस प्रकार यूरोप वासियों ने एशिया, अफ्रीका और अमेरिका के लोगों की ‘मानव मंडियां’ लगाई थी, 21वीं सदी के स्वतंत्र भारत में भी लगभग वही हो रहा है।

Jharkhand Migrant Labour killed in Rohtang

दुनिया के गरीबों को तो मरना ही है, बहाना चाहे जो भी हो, गर्मी, सर्दी, भुखमरी, प्राकृतिक या मानव निर्मित आपदा हो, जान तो गरीब की ही जानी होती है। इस बार भी वही हुआ, हमारे विशिष्ट व्यक्ति हवाई जहाजों में अपने साथ ‘कोविड-19’ को लेकर आये और अचानक एकदम तालाबंदी करवा कर खुद तो साफ बच गए, मरने के लिए करोड़ों गरीब मजदूर (Labour) मिल गए। अब उन में से कुछ कोरोना से तो कुछ भूख प्यास से मरेंगे, पर मरेंगे जरूर।

पहले एकदम लॉकडाउन (Lockdown) का आदेश, उनके जीवन को जहां था वहीं बन्द कर दिया। बड़े-2 दावों और आश्वासनों के बावजूद उन के लिए भूखों मरने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं छोड़ा। जब भूखे इंसान अशांत हो कर सड़कों पर उतर गए तो झटपट एक नया फरमान जारी हुआ, उन सभी को अपने-2 घर भेजने का। अब सरकार में बैठे बड़े-2 विशेषज्ञों और फैसले लेने वालों से पूछा जाना चाहिए, यदि मजदूरों को घर भेजना ही था तो उन्हें 30 मई तक रोक कर क्यों रखा गया। बिना कीर्तन के थाली व घंटे क्यों बजवाये गए, बिना दिवाली के दीये क्यों जलवाये गए, पटाखे क्यों फुड़वाये गए ? अब श्रमिक स्पेशल ट्रेन चलाई जा रही हैं। उसमें भी उसी तरह की पूरी अव्यवस्था की स्थिति है। जाने वालों के पास रोटी के लिए पैसे नहीं, रेलवे किराया मांग रहा है। बिना टिकट यात्रा गैर कानूनी है और यह निज़ाम अपने कानून पसंदगी के लिए तो ख़ासी प्रसिद्ध है।

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सबसे अधिक हैरान करने वाली बात तो यह कि सरकार खुद ही कह रही है कि स्थिति सुधर रही है और धीरे-2 तालाबंदी हटाई जा रही है। जब तालाबंदी हटाई जा रही हो तो ज़ाहिर है फेक्टरियां, बाज़ार और अन्य काम के स्थल भी खुलेंगे। उन सब काम धन्धे, कारखाने आदि को चलाने के लिए मजदूर तो चाहिए। मजदूरों (Labour) को गांव भेज दिया गया है। इस नई स्थिति का सामना किस तरह करेगी, सरकार ?

अब इस नौटंकी में एक दृश्य और जोड़ा गया है। सेना के तीनों अंगों द्वारा कोरोना के योद्धाओं का सम्मान, जिस में वायु सेना द्वारा हवाई जहाजों से ‘कोविड-19’ अस्पतालों पर फूल बरसाना, नेवी के सैनिक समुद्रों में रोशनी करेंगे और थल सेना के जवान अस्पतालों के सामने आर्मी बैंड बजायेँगे। यह सरकार यदा कदा अपने मूल चरित्र का प्रदर्शन करती रहती है। एक तरफ तो कोरोना योद्धाओं पर हेलीकाप्टर से फूलों की वर्षा और दूसरी ओर कोरोना के योद्धाओं द्वारा अपनी सुरक्षा तथा सुविधाओं के लिए प्रदर्शन करना पद रहा है। यह नौटंकी और सेना की इस तरह से नाटक में एंट्री भी उसी का हिस्सा है। धर्म, आस्था, राष्ट्रवाद और सेना का राजनैतिक प्रयोग एक आम बात बन चुकी है। 4 मई से तालाबंदी का तीसरा चरण घोषित कर दिया गया है जो 17 मई तक चला। अब 17 मई से 31 मई तक चौथा चरण घोषित कर दिया गया है। लेकिन इस बार कोरोना के प्रबंधन का विकेन्द्रीकरण कर दिया गया है। अब बहुत से महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए राज्य सरकारों को अधिकृत किया गया है। केन्द्रीय सरकार अपने उत्तरदायित्वों से भाग रही है। इस का एक लाभ यह होगा कि कोरोना (Corona) को इस हद तक पहुंचाने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों के सिर पर डाल दी जाएगी।

आज के इस महापलायन या घर वापसी या बेहतर से बदतर की तरफ यात्रा और मजदूरों के कष्टों ने मुझे एक बार फिर याद दिला 2009 और 2014 वे दुर्घटनाएं। एक तरफ 2009 के झारखंड के मजदूरों (Labour) का रोहतांग पर मरना और लावारिस उजाड़ पड़े कब्रिस्तान में दफ़न कर दिया जाना, दूसरी ओर 2014 (8 जून) के हेदराबाद के एक बड़े संस्थान के बीटेक के छात्र-छात्राओं का मंडी और कुल्लू के बीच थलोट में सेल्फ़ी लेते-2 ब्यास नदी में बह जाना और आंध्रा प्रदेश, तेलंगाना तथा हिमाचल प्रदेश, तीन राज्यों की सरकारों द्वारा अंतिम शव की बरामदी तक सबसे लंबा बचाव अभियान चलाना। जीवित बच्चों को हवाई जहाज द्वारा हेदराबाद पहुंचाना तथा राहत के रूप में 1.5 लाख रुपये हर मृतक के अविभावकों को देना। हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) के तत्कालीन मुख्यमंत्री का दौरा, आंध्रा और तेलंगाना के मंत्रियों स्पॉट विजिट के अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश जस्टिस मंसूर अली द्वारा स्वत: संज्ञान लेकर सरकार से स्टेटस रिपोर्ट प्रस्तुत करने के आदेश देना। इस सब को देख कर मुझे एक बार फिर लगा, न्यायपालिका तो अवश्य ही 2009 के झारखंड मजदूर मामले को महत्व देगी। मैंने एक पत्र तमाम दस्तावेजों के साथ मुख्य न्यायधीश हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय को प्रेषित किया लेकिन आज भी इंतज़ार है, जबाव का।

आज भी इस कोरोना जनित लॉकडाउन की स्थिति में उसी तरह का भेदभाव से भरा व्यवहार किया जा रहा है। एक तरफ तो विशिष्ट तथा मध्यम वर्ग के लोग और उनके बच्चों को तो चार्टर्ड विमानों या बसों द्वारा उनके घरों तक पहुंचाया जा रहा है। दूसरी ओर आम आदमी और गरीब मजदूरों (Labour) को अपने हाल पर भूखे प्यासे सड़कों, रेल की पटरियों, ट्रेनों में मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। या फिर अपने बूते पर पैदल सैंकड़ों व हजारों किमी यात्रा करने को छोड़ दिया जाता है। इस तरह की स्थितियों में अनायास ही दिमाग में उपरोक्त सवाल ‘कौन कहता है, आदमी और आदमी बराबर होता है’ आ जाता है।