वैसे तो मैं इस प्रकार के त्योहारों, पर्वों, मेलों आदि को नियमित और अनिवार्य रूप से नहीं मनाता और न ही बधाइयां देता हूं। लेकिन इस बार विशेष प्रयोजन से अपने सीमित (एफबी) मित्रों को लिख रहा हूं ताकि रिकार्ड रहे और आने वाले समय में यह किसी ‘पद्मावती’ का रूप न ले ले।

दो दिन पहले (30.1.2018) की रात दिल्ली में रह रहे बेटे ने फोन पर ‘हैप्पी हालडा’ कह कर बधाई दी। सुन कर थोड़ा हैरान भी हुआ और धक्का भी लगा, हैरान इस लिए क्योंकि हमारे रिवाजों में ऐसा कोई त्योहार नहीं है जिसे ‘हालडा’ के नाम से जाना जाता हो और धक्का इस लिए कि हम अपनी जड़ों से जुड़कर रहना भी चाहें तो भी समय और हालात की मजबूरी उसे ऐसा करने नहीं देती। तथाकथित विकास के पीछे दौड़ते समय, रोबोट और एआई (आर्टिफ़िशल इंटेलिजेंस) युग की दुनियां में मनुष्य अपना अस्तित्व तक भूलता जा रहा है। हर तरफ भागम भाग है, एक दूसरे से आगे निकलने की। आदमी के पास सब के लिए समय है, सिर्फ अपने लिए नहीं। सुबह से रात, रात से सुबह तक उसे ‘टाटाओं, अंबानियों और आडानियों के लिए ही जीने के लिए मजबूर कर दिया जाता है, कमाता है और उन्हें अरबपति बनाता है। दो समय की रोटी से बढ़ते-2 मांगे सीमा रहित हो जाती हैं।

हां! मैं कह रहा था कि ‘हालडा मुबारिक’ पर धक्का लगा, क्योंकि उसका ज्ञान सही नहीं था इसलिए उसे तो उसकी गलती बता दी और उसे यह भी बता दिया की सही में इस त्योहार को ‘दयाइ या खोगल•’ कहते हैं, न कि ‘हालडा’। इस त्योहार ‘दयाइ या खोगल•’ को ‘हालडा’ नाम बाहर से आए लोगों, विशेषकर आजादी के बाद इस क्षेत्र में नियुक्त सरकारी कर्मचारियों ने दिया है। अब क्योंकि इस प्रकार के परंपरागत विषयों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने का रिवाज कुछ ज्यादा ही हो चला है, विशेषकर आज के संस्कृति के ठेकेदारों के दौर में। परंपरा के नाम पर कभी ‘पद्मावती’ पर तो कभी ‘पटाखों’ को फोड़ने की रोक पर उत्पात और हुड़दंग। इसलिए लिखे दे रहा हूं ताकि प्रमाण रहे।

यहां यह बताना उचित होगा कि हमारे क्षेत्र लाहौल की संस्कृति में चंद्रमा पर आधारित कलेंडर का विशेष महत्व है। हर मौके के लिए चंद्रमा की दशाओं पर निर्भर रहना होता है। हर कार्य के लिए पूर्णमाशी या फिर चढ़ते चंद्रमा को शुभ माना जाता है। कोई भी कार्य घटते चंद्रमा के पाक्षिक में नहीं किया जाता। उसके बाद ध्यान रखा जाता है कि सप्ताह का दिन अच्छा हो आमतौर पर सोम, बुध तथा शुक्रवार शुभ दिन माने जाते हैं। लेकिन कुछ क्रियाओं तथा धार्मिक कार्यों के लिए मंगल और शनिवार को भी चुना जाता है।

लाहौल के बड़े त्योहार सर्दियों में ही मनाये जाते हैं जिनमें मकर संक्रांति के दिन ‘संग्रान्द या उतना’, उसके एक पाक्षिक बाद ‘दयाइ या खोगल•’ और फिर 15 दिन उपरांत ‘कुंस या कुंह्’। अधिकतर त्योहारों के सर्दियों में मनाने के पीछे अनेक कारण हो सकते हैं। लेकिन एक बड़ा कारण यह है कि लाहौल एक ऐसा क्षेत्र रहा है जो सर्दियों में साल में कम से कम 6 महीने के लिए दुनियां से कट जाता है। जिसका कारण है रोहतांग दर्रा जो इसे कुल्लू से अलग करता है इस दौरान अत्यधिक बर्फबारी के कारण बंद हो जाता है और लोग उस घाटी के अंदर बंद हो जाते थे। उस अकेलेपन के समय को काटने के साधन के रूप में इन त्योहारों का सर्दियों में मनाया जाना शुरू किया गया होगा। इनमें पहला त्योहार ‘संग्रान्द या उतना’ को नए साल के बतौर, ‘दयाइ या खोगल•’ को दिवाली और ‘कुंस या कुंह्’ को फागली के रूप में मनाया जाता है। इस बार लाहौल की ‘दयाइ या खोगल•’ का त्योहार 31 जनवरी के दिन आया, क्योंकि 31 जनवरी को पूर्णमाशी थी। लेकिन अधिकतर लोगों ने इसे 30 जनवरी को ही माना लिया। जिनमें मैं भी शामिल हूं।

इस बार इस त्योहार के साथ कुछ असमंजस हुआ क्योंकि यह त्योहार पूर्णमाशी की रात को मनाया जाता है और पूर्णमाशी 31 जनवरी को थी। लेकिन बहुत से लोगों ने त्योहार को एक दिन पहले यानि 31 जनवरी की बजाय 30 जनवरी को मनाया। जिसका कारण था 31 जनवरी को होने वाला चंद्रग्रहण। मान्यता है कि चंद्रग्रहण के समय या दिन कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता। इसलिए इस वर्ष दो ‘दयाइ या खोगल•’ मनाई गई।

यहां पर बता दिया जाये कि ‘दयाइ या खोगल•’, का यह त्योहार मकर संक्रांति के बाद पहली पूर्णमाशी की रात्रि को मनाया जाता है। लकड़ी के मशालें बनाई जाती हैं और रात को लोग पूरे गांव में मशालों को हाथों में लेकर सब मिलकर मनाते हैं। बच्चे अलग से बड़ों से पहले रात होने के बाद मशालें जलाकर बर्फ के बीच में खेलते हैं (यदि बर्फ हो, क्योंकि अब तो बर्फ पड़ना बंद हो गई है)। पुरुष शाम होते ही गांव में अपने-2 निकट संबंधियों के पास बैठते हैं, जिसे ‘चुप्यक्सी’ कहते हैं, वहां खाना-पीना होता है, लेकिन कोई गाना बजाना नहीं होता।

उसके बाद काफी रात बीत जाने के बाद गांव के बड़े लोग (ध्यान दें सिर्फ पुरुष) गाने-बाजे के साथ मशालों को जलाये, खेलते हुए गांव की पश्चिम दिशा में जाते हैं जहां पर एक नियत स्थान पर पहुंच कर वह जुलूस और क्रीडा खत्म होती है और उन मशालों, जिसे ‘हालडा’ (उच्चारण अलग है) कहते हैं, को वहां फैकते हैं। उस स्थान को ‘हालडा’ बूट कहते हैं। उस रात को घर में खाना तब तक नहीं खाया जाता जब तक कि ‘द्याइ’ खेलने वाले घर वापस नहीं आ जाते। इस प्रक्रिया में लोग यह भी ध्यान रखते हैं कि आसपास के गांवों में ‘दयाइ’ निकल चुकी है कि नहीं, यह एक रिवाज बना होता कि पहले किस गांव कि और बाद में किस गांव की ‘द्याइ’ को निकलना है। मेरे गांव जाहलमा में इस प्रक्रिया में आधी रात हो जाया करती थी तब तक बच्चों को भी खाना नहीं मिलता था। इसके अतिरिक्त कुछ गांव में व्यक्तिगत मशाल के अतिरिक्त भी सामूहिक मशाल निकालने की परंपरा थी। वह ‘हालडा’ या मशाल बहुत बड़ी होती थी जिसे कई लोग मिलकर पकड़ते और उठाते थे। इस प्रकार के हालडा या मशाल को ‘पनमुक’ कहते थे। इस प्रकार की मशाल (पनमुक) नालड़ा जैसे गांव में निकाले जाते थे, जो किसी नाले या घाटी के मुहाने पर स्थित होते थे।

एक बार फिर लाहौल-स्पिती, विशेषकर लाहौल के युवाओं को बता देना चाहता हूं कि यह ‘हालडा’ नहीं अपितु ‘दयाइ या खोगल•’ है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि समय के साथ सब कुछ बदलता है और उस बदलाव का खुले मन और मस्तिष्क से स्वागत भी होना चाहिए, न कि उसका विकृतिकरण किया जाये। इसके अतिरिक्त भी परम्पराओं और आस्थाओं के नाम पर संविधान का अपमान, न्यायालयों की अवमानना एवं समाज को तोड़ने के कार्य करने के फैशन को तोड़ा जाना ही अल्पसंख्यकों एवं सीमांत लोगों तथा राष्ट्र के हित में होता है।

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