देश के प्रजातांत्रिक इतिहास में पहली बार भूचाल सा आया हुआ लगा। जब सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम चार न्यायाधीशों ने मीडिया के माध्यम से देश की जनता को संबोधित किया। मीडिया के सामने चार जजों ने कहा है कि वह देश के आम आदमी से कहना चाहते हैं कि उनके लिए उच्चतम न्यायालय का वातावरण असहनीय हो गया था। उन्होंने यहां तक कह दिया कि देश का प्रजातन्त्र खतरे में है। आज विधायिका और कार्यपालिका की विश्वसनीयता निम्न स्तर पर पहुंच चुकी है। कुछ बचा है तो वह है न्यायपालिका पर विश्वास। इसी लिए देश का आम आदमी न्यायालयों के पास जाता है और न्यायधीशों से न्याय की अपेक्षा करता है। न्यायालय निर्णय देते हैं, जो कई बार तो देश की सीमाओं व काल की परिधि से भी ऊपर के और एतिहासिक होते हैं। जो देश और समाज को दूर तक प्रभावित करने वाले होते हैं। आज एक अभूतपूर्व स्थिति में देश के वरिष्ठतम चार न्यायधीश, देश की जनता के दरबार में आए हैं तो निश्चय ही जनता को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए और अपना निर्णय भी देना चाहिए। जब से ये चार न्यायमूर्ति मीडिया के सामने गए हैं तब से उनके इस व्यवहार को लेकर लोग अपने-2 मत और प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं। कुछ लोग इसे उनका उचित कदम बताते हैं तो कुछ अनुचित, कुछ पक्ष में तो कुछ विपक्ष में बोल रहे हैं, परन्तु चिंता सभी को हो रही है। अनुचित बताने वालों का कहना है कि यह न्यायपालिका की अंदरूनी समस्या है, इसे वे स्वयं हल कर सकते हैं। यहां बता दिया जाये कि कम से कम केंद्र सरकार का मत भी यही है। सरकार का कहना है कि वह इस मामले में दखल देने के विरुद्ध है। इसके पीछे सरकार की क्या मंशा है यह तो वही बता सकती है।

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश जस्टिस दीपक मिश्रा के बाद सबसे वरिष्ठ चार जज जस्टिस जे. चेलमेश्वर, जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस मदन बी. लोकुर तथा जस्टिस कुरियन जोसेफ ने, भारतीय न्याय व्यवस्था के इतिहास में पहली बार मीडिया के सामने अपनी चिंताएं व्यक्त की है। न सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता एवं सत्यनिष्ठा को बचाए रखने रखने के लिए अपितु देश के प्रजातन्त्र की रक्षा के लिए इन चार न्यायधीशों ने अदम्य साहस दिखाया है। जिसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में न्यायिक प्रशासन पर अलोकतांत्रिक होने का दोष लगाया है। उन्होंने इस बात पर भी खेद जताया कि उनके द्वारा मुख्य न्यायधीश को पत्र लिखकर शिकायत दर्ज करवाने या व्यक्तिगत स्तर पर जाकर समस्याओं की और ध्यान दिलवाने के बावजूद वे उनको मनवा नहीं सके। जिसके चलते अंत में उनको मीडिया के सामने आना पड़ा। इस बारे में बोलते हुए जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा कि ‘हम नहीं चाहते हैं, 20 साल के बाद कोई यह कहे कि हमने अपनी आत्मा बेच दी थी।’

इन वरिष्ठतम जजों ने मीडिया को अपना सात पृष्ठों का वह पत्र भी दिया जो उन्होंने मुख्य न्यायधीश को लिखा था। इस पत्र में उन्होंने लिखा था कि कलकता, बाम्बे और मद्रास उच्च न्यायालयों की स्थापना से लेकर आज तक न्यायिक प्रशासन की कुछ स्थापित परम्पराएं एवं परिपाटी चली आ रही हैं। जिसके तहत ही न्यायिक प्रशासन चलाया जाता है।

बताया गया है कि न्यायिक प्रशासन का एक महत्वपूर्ण स्थापित सिद्धांत यह है कि चीफ जस्टिस कार्यसूची के स्वामी होते हैं। कार्यसूची का निर्धारण उनका विशेषाधिकार होता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि यह मुख्य न्यायधीश को अपने सहकर्मी जजों पर कानूनी या तथ्यात्मक प्रधानता देता है। इस देश के न्याय शास्त्र में स्थापित हो चुका है मुख्य न्यायधीश बराबर की हैसियत वालों में प्रथम हैं। इसलिए कार्यसूची बनाते हुए व खंडपीठ के गठन में वह अपनी मनमर्जी नहीं चला सकता अपितु उसे अपने सहकर्मियों से सलाह मशवरा करना आवश्यक है। आमतौर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया में समस्त विभाग या संस्थान सम्मिलित माना जाता है। किसी भी विषय पर यह प्रक्रिया नीचे से शुरू होती है और कई स्तरों पर सुझावों और सुधारों के बाद मुख्य कार्यपालक की स्वीकृति के रूप में हस्ताक्षर पर खत्म होती है। यह निर्णय अकेले संस्थान के मुख्य का नहीं होता अपितु समस्त संस्थान या विभाग का होता है। तभी तो प्रजातांत्रिक व्यवस्था में निर्णय लेने में देर होती है जिसके लिए व्यवस्था की आलोचना भी होती है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में यह नहीं हो रहा था, इसी लिए ये चार जज देश की जनता के सामने आने को मजबूर हुए। उस समय उनके चेहरों से दर्द साफ झलक रहा था।

एक साधारण से साधारण व्यक्ति भी इस बात का अनुमान लगा सकता है कि इस स्तर के लोग जो देश की न्याय व्यवस्था में शीर्ष स्थान पर हों और उनमें एक तो ऐसा जिसे कुछ ही महीनों में मुख्य न्यायधीश का पद संभालना हो, को इस प्रकार का कदम उठाना पड़ा हो तो वे कितना मजबूर रहे होंगे? उनके मन मस्तिष्क में क्या चल रहा होगा? जब उनको कहना पड़ा कि प्रजातन्त्र खतरे में है, तो इस मामले को अवश्य ही गंभीर मानना चाहिए। उनका यह भी कहना था कि हमारे पास मामले को देश के साथ सांझा करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं बचा था। पीछे अपने एक लेख ‘चिंता मशीनों (ईवीएम) की नहीं प्रजातन्त्र की हो’ में मैंने लिखा था- ‘कुछ दिन पहले पूर्व उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी के द्वारा बतौर उप राष्ट्रपति दिये गए अन्तिम सम्बोधन पर शासन के शीर्ष पदों से हुई प्रतिक्रिया अनुचित व अवांछित कही जा सकती है। उससे पहले पश्चिमी बंगाल में राज्यपाल केशरी नाथ त्रिपाठी और प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बीच के मतभेद ने राज्य में तनाब की स्थिति पैदा कर दी थी। भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के मध्य भिड़ंतें हो रही थी। प्रदेश के राज्यपाल व मुख्यमंत्री के आपसी संबंध शुरू से ही अच्छे नहीं रहे थे। लेकिन हाल में वे बहुत ही कटु हो गए थे। एक तरफ मुख्यमंत्री ने आरोप लगाया कि राज्यपाल, राजभवन को भाजपा कार्यालय के रूप में प्रयोग कर रहे हैं। दूसरी ओर राज्यपाल इन आरोपों से इंकार करते हैं और अपने संवैधानिक कर्तव्यों का हवाला देते हुए अपने कार्यों को उचित ठहराते हैं। हम जानते हैं कि संविधान में राज्यपाल के पद का प्रावधान, संवैधानिक प्रमुख के नाते संविधान की रक्षा बिना किसी राजनीतिक दबाव के निभाने के लिए किया गया था। लेकिन इसके स्थापना के साथ ही इस पद के साथ हर तरह का अन्याय भी और इसका दुरुपयोग भी किया जाता रहा है। शुरू से ही कई राज्यपाल विवादों में घिरते रहे। राज्यपाल पद पर नियुक्ति में केन्द्र में जहां सत्तासीन पार्टियों ने अपने राजनीतिक हितों को ध्यान में रखते हुए या पार्टी सदस्य को लाभान्वित करने के उद्देशीय से कार्य किया। बदले में राज्यपालों ने भी पार्टियों के पक्ष में ऐसे निर्णय लिए जिन्हें असंवैधानिक नहीं तो संवैधानिक भी नहीं कहा जा सकता। आज यह समस्या देश के प्रजातन्त्र के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में खड़ी हो चुकी है।’

‘यहां मैं यह कहना चाहता हूं कि ईवीएम से बड़ा खतरा तो और है। संस्थानों का राजनैतिकीकरण करके उनकी विश्वस्तनीयता एवं निष्पक्षता समाप्त की जा रही है, जो नियोजित ढंग से हो रहा है। ईवीएम तो एक मशीन है, खराब होगी तो ठीक कर दी जाएगी। मशीन अपने आप बेईमानी नहीं कर सकती, इसके पीछे इंसान ही रहता है। मशीन खराब होगी तो ठीक हो जायेगी, लेकिन इंसान का ईमान खराब हो जाये तो उसका इलाज कहीं भी उपलब्ध नहीं है। आज हमारे प्रजातन्त्र के लिए ईवीएम से अधिक बड़े खतरे हमारे राज्यों में तैनात प्रदेश के संवैधानिक मुख्य यानि राज्यपालों से हैं जैसे कि हाल में गोवा और मणिपुर में हुआ। राज्यपालों ने अकेली सबसे बड़ी पार्टी को पूछा तक नहीं और सीधे केंद्र सरकार की पार्टी को सरकारें बनाने का न्यौता दे दिया।

हम देख रहे हैं कि मामले को दबाने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। इसमें वे सब ताक़तें शामिल हैं, इस मामले पर चर्चा से जिनकी योजना असफल होती हैं। ध्यान देने की बात यह है कि इस प्रकरण में चार जजों ने जो मुद्दे उठाए हैं, उन पर बात ही नहीं हो रही है। जो मुद्दे उठे ही नहीं चर्चा उन पर ही हो रही है, उसमें देश का मीडिया भी सम्मिलित है। 2016 के ‘नोटबंदी’ के दौरान तत्कालीन मुख्य न्यायधीश द्वारा की गई टिप्पणी का भी कोई सम्बन्ध इस घटना से जुड़ता है ? यदि जुड़ता है तो यह एक अन्य विचलित करने वाली बात होगी। जस्टिस कोया की मौत पर चर्चा अधिक हो रही है, यहां तक कि उनके बेटे का इंटरव्यू समस्त टीवी चेनलों पर प्रमुखता से प्रसारित किया जा रहा है। चार जजों ने सीधे देश के प्रजातन्त्र और सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था के प्रशासन की बात उठाई है। यहां यह कहना असंगत नहीं होगा कि दिल्ली से बहुत दूर एक पिछड़े गांव में भी यह तय है कि अपने मामले में फैसला करने वाला वह स्वयं नहीं हो सकता, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में ऐसा होता है?

वर्तमान के न्याय व्यवस्था के अन्दर से उठे इस तूफान में छिपे अर्थ को समझना और इसके दूरगामी प्रभावों का आकलन भी करना होगा। इसलिए तमाम राजनैतिक पार्टियों, भाजपा को भी इस मामले में संजीदगी से सोचना होगा। विशेषकर विपक्ष जो नाममात्र का रह गया है, को अपने-2 खोलों से बाहर आकर इसको एक राजनैतिक लड़ाई के रूप में लड़ना होगा और लड़ाई को संसद और सड़क दोनों पर लड़ना होगा। अब तो इस देश के राजनेता अपने-2 मूछों में तेल लगाकर ताव देने की बजाए अखाड़े में आयेँ। लोगों के पास जाये उनको उनकी लड़ाई के बारे में जागृत करें, देश के लोकतन्त्र को बचायेँ।’ उनसे जब पूछा गया कि क्या वे मुख्य न्यायधीश के विरुद्ध महाभियोग चलाना चाहेंगे, तो उनका जबाब था इसका फैसला देश करेगा। जिसका सीधा मतलब है कि वे लोग देश के आम आदमी की अदालत में पहुंचे हैं….. । देश की जनता को भी गम्भीरता से विचार करना होगा, देश के वरिष्ठतम चार न्यायधीश प्रजातन्त्र को लेकर जन अदालत में- जनता को निर्णय देना होगा।

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