जब से होश संभाला है तब से एक वर्ग विशेष के लोगों के लिए ‘आरक्षित’, ‘कोटे का’, ‘बैकडोर’, ‘सरकारी दामाद’ आदि-2 विशेषणों का प्रयोग होते हुए सुनता आ रहा हूं। इस प्रकार के पहचान शब्द इस देश के उन करोड़ों लोगों के लिए प्रयोग किए जाते हैं, जो पता नहीं कब से लेकर उपेक्षित, दलित और शोषित होते चले आ रहे हैं। इस प्रकार के सम्बोधन शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं जो कि एक प्रजातांत्रिक देश के संविधान में सीमांत लोगों को सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए किए गए प्रावधानों के अंतर्गत सरकारी सेवाओं में भर्ती किए जाते हैं। इस प्रकार की गालियां उन कर्मचारियों के लिए प्रयोग की जाती हैं जिन्हें तथाकथित आरक्षित रखे गए पदों पर भर्ती किया जाता है। ये गालियां दी जाती हैं संविधान में प्रदत सामाजिक न्याय के नाम पर। ऐसा प्रचारित किया जाता है जैसे देश-प्रदेश की समस्त सरकारी नौकरियां इन्हीं आरक्षित वर्ग के लोगों ने निगल ली हैं। शोर मचाया जाता है जैसे पूरा का पूरा देश इन गरीबों ने हड़प लिया हो। लेकिन इस सब की सच्चाई क्या है, वह 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री कार्यालय में नियुक्त राज्यमंत्री वी नारायण स्वामी द्वारा संसद को एक रिपोर्ट के रूप में दी गई जानकारी से पता चलती है (आज भी स्थिति इससे बेहतर होगी ऐसा नहीं लगता)। इसे एक सारणी की सहायता से साफ-2 समझा जा सकता है।

सारणी क1

क्रम                      वर्ग                         ग्रुप ए          ग्रुप बी         ग्रुप सी         ग्रुप डी
1                अनुसूचित जाति                  11.1           14.3           16              19.3
2                अनुसूचित जनजाति             4.6             5.5            7.8                  7
3                   कुल बैकलॉग                           अनुसूचित जाति 25037
अनुसूचित जनजाति 28173

उसी रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि वर्ष 2011 में केंद्र सरकार के कुल 149 सचिव स्तर के अधिकारियों में अनुसूचित जाति से एक भी अधिकारी नहीं था, अनुसूचित जनजाति से मात्र चार अधिकारी थे। यहां तक कि आईएएस, आईपीएस तथा आईएफएस जैसी अति महत्वपूर्ण एवं सीधी भर्ती की जाने वाली अखिल भारतीय सेवाओं में भी इन वर्गों का प्रतिनिधित्व उनके निर्धारित हिस्से से कम था। आईएएस की सीधी भर्ती के 3251 अधिकारियों तक में 13.9 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 7.3 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति तथा 12.9 प्रतिशत अन्य पिछड़े वर्गों से थे।

उपरोक्त आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि उन कोटे के लोगों को असल में मिला क्या है? यहां पर यह बताना आवश्यक है कि उनके लिए निर्धारित आरक्षण अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए क्रमश: 15 तथा 7.5 प्रतिशत है जिसमें उनको उनका पूरा हिस्सा सिवाय ग्रुप सी (तृतीय श्रेणी) एवं ग्रुप डी (चतुर्थ वर्ग) के कभी भी प्राप्त नहीं हो सका। ग्रुप डी या चतुर्थ श्रेणी में भी अनुसूचित जाति की हिस्सेदारी अधिक इसलिए है क्योंकि ‘सफाई कर्मचारियों’ में 40 प्रतिशत अनुसूचित जाति से हैं। तो भला इतनी हाय तौबा की क्यों और क्या औचित्य है?


स्थिति मार्च, 2011 की है।
आंकड़े सिर्फ केंद्र सरकार के सेवाओं व पदों के हैं।
आंकड़े प्रतिशत में हैं।
वैधानिक तौर पर निर्धारित तथाकथित आरक्षण अनुसूचित जाति के लिए 15 प्रतिशत तथा अनुसूचित जनजाति के लिए 7.5 प्रतिशत है।

आंकड़ों के एक अन्य सेट का अवलोकन करें:-

सारणी ख
संस्था कुल                                  सीटें (निर्वाचित)         अनुसूचित जाति         अनुसूचित जनजाति
लोकसभा                                     543                                   791                       411
विधान सभाएं                             4120                                 5701                     5321
ज़िला परिषद अध्यक्ष                     608                                   912                       462
खण्ड समिति अध्यक्ष                   6568                                 9852                     4932
पंचायत प्रधान                         247934                            371902                  195962

यह स्थिति बनती है निर्वाचित क्षेत्रों में आरक्षण को लेकर, पंचायती संस्थानों में तो 33 प्रतिशत महिला आरक्षण इसके अतिरिक्त भी है। लेकिन इस आरक्षण पर कभी बबेला खड़ा हुआ ही नहीं। शोर तो सिर्फ नौकरियों में आरक्षण को ले कर होता है, जबकि नौकरियों में आरक्षण, संवैधानिक प्रावधान है ही नहीं, वह तो मात्र शासकीय आदेशों के आधार पर चल रहा है। यद्यपि संविधान का अनुच्छेद 16(4) एवं (5) समाज के कुछ वर्गों के लिए राज्य के अधीन सेवाओं में आरक्षण करने हेतु राज्य को स्वतन्त्रता प्रदान करता है।

आरक्षण (राज्य सेवाओं) पर बात करने से पहले यह तो देख लिया जाना चाहिए कि संविधान में आरक्षण को लेकर क्या स्थिति है? जिस ‘आरक्षण’ को लेकर पूरे देश में आंदोलन खड़े किए जाते रहे हैं, वह संविधान में विद्यमान है भी कि नहीं। इस विषय पर कोई राय बनाने से पहले हमें संविधान में किए गए आरक्षण से संबन्धित अनुच्छेदों को जरा ठीक से पढ़ लेना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद 16, 330, एवं 332, मात्र तीन अनुच्छेदों में इस अर्थ में ‘आरक्षण’ शब्द का प्रयोग किया गया है। अनुच्छेद 330 लोकसभा एवं अनुच्छेद 332 में विधान सभाओं में आरक्षण का प्रावधान किया गया है। जबकि संघ या राज्यों के अधीन सेवाओं व पदों पर कुछ वर्गों के लोगों को प्रतिनिधित्व दिये जाने की बात अनुच्छेद 335 में कही गई है, न कि आरक्षण की, वह भी प्रशासन की दक्षता बनाए रखने की शर्त पर। इस अनुच्छेद में भी इसके लिए ‘दावे’ शब्द का प्रयोग किया गया है ‘आरक्षण’ का नहीं। यहां 16(4), 330, 332 और 335 अनुच्छेदों को यथावत दिया जा रहा है ताकि स्थिति अधिक साफ हो सके:

अनुच्छेद 16. लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता-(4) इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियां या पदों के आरक्षण के लिए उपबंद करने से निवारित नहीं करेगी3।

अनुच्छेद 330. (1) लोकसभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों का ‘‘आरक्षण’’- (1)

(क) अनुसूचित जातियों के लिए;
(ख) असम के स्वशासी जिलों की अनुसूचित जनजातियों को छोड़कर अन्य अनुसूचित जनजातियों के लिए, और
(ग) असम के स्वशासी जिलों की अनुसूचित जनजातियों के लिए; स्थान आरक्षित रहेंगे।

(2) खण्ड (1) के अधीन किसी राज्य (या संघ राज्य क्षेत्र) में अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के
लिए आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात, लोक सभा में उस राज्य (या संघ राज्य क्षेत्र) को आवंटित,
स्थानों की कुल संख्या से यथाशक्य वही होगा जो, यथास्थिति, उस राज्य (या संघ राज्य क्षेत्र) की


1. 1976 के परिसीममन पर आधारित।
2. आरक्षण को 15 प्रतिशत अनुसूचित जाति तथा 7.5 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति के लिए माना गया है।
3. इस अनुच्छेद में 4-क तथा 4-ख क्रमश: संविधान (77वां संशोधन) अधिनियम, 1995 की धारा 2 एवं संविधान (85वां संशोधन) अधिनियम, 2001 की धारा 2 जोड़ी गई।


अनुसूचित जातियों की अथवा उस राज्य (या संघ राज्य क्षेत्र) के भाग की अनुसूचित जनजातियों की, जिनके संबंध में स्थान इस प्रकार आरक्षित हैं, जनसंख्या का अनुपात उस राज्य (या संघ राज्य क्षेत्र) की कुल जनसंख्या से है।

(3) खण्ड (2) में किसी बात के होते हुए भी, लोकसभा में असम के स्वशासी जिलों की अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात, उस राज्य को आवंटित स्थानों की कुल संख्या के उस अनुपात से कम नहीं होगा जो उक्त स्वशासी जिलों की अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या का अनुपात उस राज्य की कुल जनसंख्या से है।

(स्पष्टीकरण– इस अनुच्छेद में और अनुच्छेद 332 में, ‘‘जनसंख्या’’ पद से ऐसी अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना में अभिनिश्चित की गई जनसंख्या अभिप्रेत है जिनके सुसंगत आंकड़े प्रकाशित हो गए हैं:

परन्तु इस स्पष्टीकरण में अंतिम पूर्ववर्ती जनगणना के प्रति, जिसके सुसंगत आंकड़े प्रकाशित हो गए हैं, निर्देश का; जब तक सन् 2026 के पश्चात् की गई पहली जनगणना के सुसंगत आंकड़े प्रकाशित नहीं हो जाते हैं, यह अर्थ लगाया जाएगा कि वह 2001 की जनगणना के प्रति निर्देश हैं।)

अनुच्छेद 332: राज्यों की विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों का
‘‘आरक्षण’’-

(1) प्रत्येक राज्य की विधान सभा में अनुसूचित जातियों के लिए और (असम के स्वशासी जिलों की अनुसूचित जनजातियों को छोडकर) अन्य जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित रहेंगे।
(2) असम राज्य की विधान सभा में स्वशासी जिलों के लिए भी स्थान आरक्षित रहेंगे।
(3) खण्ड (1) के अधीन किसी राज्य की विधान सभा में अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या का अनुपात, उस विधान सभा में स्थानों की कुल संख्या से यथाशक्य वही होगा जो, यथास्थिति, उस राज्य की अनुसूचित जातियों की अथवा उस राज्य की या उस भाग की अनुसूचित जनजातियों की, जिनके संबंध में स्थान इस प्रकार आरक्षित हैं जनसंख्या का अनुपात उस राज्य की कुल जनसंख्या से है।
(3क) खण्ड (3) में किसी बात के होते हुए भी, सन 2026 के पश्चात की गई पहली जनगणना के आधार पर, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड राज्यों की विधान सभाओं में स्थानों की संख्या के, अनुच्छेद 170 के अधीन, पुन: समायोजन के प्रभावी होने तक, जो स्थान ऐसे किसी राज्य की विधान सभा में अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित किए जाएंगे।

अनुच्छेद 335: सेवाओं और पदों के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के ‘‘दावे’’

संघ या किसी राज्य के कार्यकलापों से संबंधित सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियां करने में, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के दावों का प्रशासन की दक्षता बनाए रखने की संगति के अनुसार ध्यान रखा जाएगा।

संविधान के उपरोक्त अनुच्छेदों में अनुच्छेद 330 में ‘लोकसभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों का आरक्षण’ तथा अनुच्छेद 332 में ‘राज्यों की विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थानों का आरक्षण’ का प्रावधान किया गया है। ध्यान दिया जाये कि दोनों अनुच्छेदों में ‘आरक्षण’ शब्द का प्रयोग साफ-साफ किया गया है। जबकि अनुच्छेद 335 जो सेवाओं और पदों से संबंधित है, में लिखा गया है, ‘‘सेवाओं और पदों के लिए अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के दावे’’। जिसका सीधा अर्थ है कि नौकरियों, नियुक्त पदों में आरक्षण का कोई प्रावधान संविधान नहीं करता। जबकि निर्वाचित सीटों या पदों में आरक्षण का प्रावधान होता इस लिए सरकारें इन वर्गों के लिए आरक्षित पदों/सीटों को भरने में मनमानी या कोताही कर ही नहीं सकती। जैसा कि चयनित पदों और सीटों के संबंध में किया जाता है। क्या नौकरियों की तरह लोकसभा या विधान सभाओं में आरक्षित सीटें खाली रखी जा सकती हैं या रखी गई हैं? उत्तर है कभी नहीं। जबकि सिर्फ केंद्र सरकार की सेवाओं में 2011 में अनुसूचित जातियों के 25037 तथा अनुसूचित जनजातियों के 28173 पदों का ‘बैकलॉग’ है। जिसका अर्थ है कि चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें हों दोनों ने तथाकथित आरक्षित रिक्तियों को पूरी तरह कभी भरा ही नहीं। हां! यहां एक बात ध्यान देने योग्य है कि संविधान के लागू होने के 67 वर्षों तक भी सेवाओं में आरक्षण से संबंधित प्रावधान को कानून नहीं बनाया जा सका। आज तक यह सिर्फ शासकीय आदेशों के दम पर ही चलता रहा, कागजी सामाजिक न्याय होता रहा और ‘वे लोग’ गालियां सुनते रहे। अब तो सरकारों ने शिक्षा और रोजगार की ऐसी नीतियां अपनाई हैं जिससे आरक्षण का अघोषित अंत हो गया है।

अब कुछ चर्चा की जाये, ‘सामाजिक न्याय’ के चर्चित संवैधानिक प्रावधानों के चलते इन वर्गों के लोगों के जीवन में आये परिवर्तन की। आरक्षण एवं अन्य विशेष सुविधाओं और सुरक्षाओं के लाभ तो इन वर्गों के सक्षम और दबंगों ने लपक लिए और आम जन के हिस्से में ‘सामाजिक न्याय’ के नाम पर गालियां ही आ पाईं। देश में ‘सामाजिक न्याय’ के लागू होने के परिणामस्वरूप शासन-प्रशासन के घराने ही पैदा हुए हैं। कुछ पासवान, संगमा और खोबरागड़े जैसे ‘दलित ब्राह्मणों’ का उदय हुआ तो शेष के हिस्से में सामाजिक न्याय की जूठन भी नसीब न हो सकी। क्योंकि जूठन को लपकने के लिए भी एक अन्य पंक्ति तैयार खड़ी रखी थी। कुछ मामलों में एक ही परिवार के कई-2 लोग तथा कई-2 पीढ़ियां सामाजिक न्याय के मैदानों को चर रही हैं, आज। कुछ वर्ष पहले मुझे अपने पैतृक गांव व जन्म स्थान जाने का मौका मिला। यहां बता दूं कि मेरा पैतृक गांव यानि जाहलमा ज़िला लाहौल-स्पिति में पड़ता है, जो संविधान की पांचवीं अनुसूची क्षेत्र में आता है। दिनांक 28.9.2015 की सुबह 9:59 पर 9459238203 नंबर के मोबाइल से मुझे एक फोन मिला और एक नौजवान ने कुल 12:17 मिनट तक बात की। उस नौजवान ने बड़ी वेदना व आक्रोश के साथ बताया कि उसके गांव में एक ऐसा परिवार है जिसमें से उसकी विधानसभा का विधायक है, दो पीढ़ियों के चार (बाद में पता चला कि दामाद भी) आईएएस हैं। यहां यह बताना भी अनुचित नहीं होगा, कि आज़ादी से पहले उसी परिवार से उस क्षेत्र का जागीरदार था। देश की आज़ादी के बाद उसी में से ट्राइबल एडवाइज़री काउंसिल का सदस्य, फिर विधायक और अब दूसरी पीढ़ी का विधायक (हर संभावना है कि तकनीकी तौर पर परिवार को अलग किया गया हो)।

संविधान में किए गए सामाजिक न्याय के प्रावधानों के लागू होने के बाद एक विशेष परिस्थिति बनी जिसके चलते इनमें कुछ व्यक्ति व वर्ग एक समय में एक साथ तीन-2 सामाजिक-वैधानिक प्रस्थितियों के लाभ उठा रहे हैं। वैसे भी ‘सामाजिक न्याय’ और ‘आरक्षण’ आज समानार्थक व एक दूसरे पूरक तो दिखते नहीं बल्कि ‘सामाजिक न्याय’ बनाम ‘आरक्षण’ बनकर एक दूसरे के सामने खड़े नज़र आते हैं।

इसलिए ‘सामाजिक न्याय’ के वर्तमान स्वरूप, अर्थ तथा लागू करने के तरीकों पर पुनर्विचार करके इसे अधिक न्याय संगत बनाने की ज़रूरत भी है और गुंजाइश भी। लेकिन सामाजिक न्याय के लिए निर्धारित सामाजिक आधार को अन्यथा नहीं छेड़ा जाना चाहिए। सूचना के लिए यहां पर श्री नरेंद्र भाई मोदी को देश के प्रधानमंत्री बनने पर भेजे बधाई पत्र (26.05.2014) के अंश दोहराना चाहूंगा।

भिन्न-भिन्न जातियों, प्रजातियों, धर्मों, भाषाओं वाले इस 125 करोड़ इन्सानों के प्रजातन्त्र के 15वें प्रधानमंत्री बनने पर जनजातीय दलित संघ की ओर से बधाई और भविष्य के लिए शुभकामनाएं देते हुए हर्ष अनुभव कर रहा हूं। साथ ही एक निवेदन करना चाहता हूं (जिसके लिए मैं पिछले 30-35 वर्षों से लगातार संघर्ष कर रहा हूं) कि संविधान प्रदत और देश में चल रही सामाजिक न्याय की नीति की समीक्षा की जाए, क्योंकि जिस प्रकार से संविधान प्रदत सामाजिक न्याय के प्रावधानों को लागू किया गया है, उसके परिणामस्वरूप इन वर्गों (अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों) में कुछ पासवान, संगमा, खोबरागड़े आदि ही पैदा हो पाये हैं। यद्यपि आज भी इन वर्गों के सबसे अधिक हाशिये के लोगों को विशेष सुविधाओं, सुरक्षाओं और अधिकारों (हिस्सों और जगह) की आवश्यकता है, लेकिन इन प्रावधानों की सहायता से राजनीति, शासन-प्रशासन और पूंजीपतियों के घराने पैदा हों, यह सर्वथा अनुचित, अन्यायपूर्ण और अस्वीकार्य है। इसके अतिरिक्त भी इन वर्गों के हितों की रक्षा के लिए गठित राष्ट्रीय संस्थानों जैसे राष्ट्रीय अनुसूचित जाति तथा राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग आदि की संरचना तथा उनके अध्यक्षों तथा सदस्यों का चयन, कार्यशैली, भूमिका एवं प्रतिबद्धता की भी समीक्षा की जानी चाहिए।

इधर साम्यवादी नेता डी राजा जो सीपीआई के अनुसूचित जाति के नेता और राज्य सभा के सांसद भी हैं, ने एक लेख में निजी क्षेत्र में आरक्षण की बात उठाई है (यद्यपि इस मामले को उठाने वाले वह पहले व्यक्ति नहीं हैं)। उन जैसे नेताओं से यह पूछा जाना चाहिए कि संविधान के लागू होने के 67 साल तक तो सार्वजनिक क्षेत्र में सेवाओं और पदों में आरक्षण के प्रावधान को संवैधानिक नहीं बना सके और चले हैं निजी क्षेत्र में आरक्षण करवाने। आज तक अनुच्छेद 335 में संशोधन नहीं करवा सके तो भला आगे की उम्मीद क्या? इधर देश के अनुसूचित जाति एवं जनजाति के बुद्धिजीवी, बड़बोले नेता, सामाजिक न्याय के नाम पर सुविधाओं का लाभ उठाने वाले, सरकार में ऊंचे ओहदे वाले और एनजीओ के ठेकेदार सामाजिक न्याय के वर्तमान व्यवस्था और तरीके को बनाए रखने की वकालत सरकार को धमकाने के लहजे में करते हैं। ये वही लोग हैं जिनकी कई-2 पीढ़ियां और एक ही परिवार के कई-2 लोग सामाजिक न्याय के नाम पर मौज कर रहे हैं। ये लोग अपने समाजों के अंदर सामाजिक न्याय की बात का पुरजोर विरोध क्यों करते हैं? क्यों उन हाशिये पर रखे गए करोड़ों लोगों का हिस्सा मार रहे हैं? समाज के वे लोग जो आज भी उपेक्षित हैं, कब तक प्रतीक्षा करते रहेंगे, उनके जीवन में सुबह होने का? क्या तब तक, जब तक कि इस वर्ग के दबंग लोगों को ब्राह्मण जाति में शामिल नहीं कर लिया जाता। वैसे तो उनके (नये ब्राह्मण) और ब्राह्मणवादियों के व्यवहार में अछूतों या दलितों के लिए कोई विशेष अंतर नहीं रहा है। यहां पर हमें एक बार फिर संविधान रचयिता डॉ. बी. आर. अम्बेडकर के उस कथन को याद करने की आवश्यकता है जो उन्होंने 15 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा में कहे थे- ‘26 जनवरी, 1950 को हम अंतर्विरोधों से भरे जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। राजनीति में हम एक व्यक्ति, एक वोट एवं एक मूल्य के सिद्धांत को स्वीकार करेंगे। सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में हम अपने सामाजिक एवं आर्थिक ढांचे के कारण एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को अस्वीकार करते जाएंगे। हम कब तक अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को अस्वीकार करेंगे। यदि हम एक लंबे समय तक इसे अस्वीकार करेंगे तो हम अपने राजनैतिक लोकतंत्र को जोखिम में डालकर ही ऐसा करते रहेंगे। हमें अवश्य ही जल्द से जल्द इस अंतर्विरोध को दूर करना चाहिए। अन्यथा जो इस असमानता से पीड़ित हैं, वे राजनीतिक लोकतंत्र के ढांचे को उड़ा देंगे जिसे संविधान सभा ने इतनी मेहनत से निर्मित किया है।’ यह कथन सवर्ण और अवर्ण के मध्य ही नहीं अपितु सामाजिक न्याय की अधिकारिता की परिधि में आने वाले वर्गों पर भी समान रूप से लागू होना चाहिए।

सेवाओं और पदों (सरकारी नौकरियों) में आरक्षण का अर्थ, स्थिति, और तस्वीर की सही स्थिति क्या है इसको आम आदमी के सामने न तो आरक्षण के समर्थक औए न ही विरोधी रखते हैं। दोनों पक्ष के लोग व राजनेता अपने-2 हितों को ध्यान में रखते हुए इसे पेश करते हैं।

आज से कुछ वर्ष पहले (23.12.2008) राज्य सभा में इस आशय का एक बिल, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (पदों एवं सेवाओं में आरक्षण) बिल, 2008 पारित किया गया था, लेकिन आरक्षण और सामाजिक न्याय के परिणामस्वरूप उदित नए ब्राह्मणों द्वारा ‘सुपर स्पेशियलिटी’ पदों को आरक्षण के दायरे से बाहर रखे जाने के विरोध के कारण उस बिल को लोकसभा में प्रस्तुत ही नहीं किया जा सका और वह अधिनियम बनने से रह गया। क्योंकि अब इन लोगों की कई-2 पीढ़ियां शासन-प्रशासन के उच्च पदों पर काबिज हो चुकी हैं और भविष्य में वे ‘सुपर स्पेशियलिटी’ पदों या स्थानों पर भी अपना अधिपत्य जमाना चाहते हैं। जबकि देश में अभी भी इन्हीं वर्गों के कई व्यक्ति ही नहीं अपितु समुदाय के समुदाय ऐसे पड़े हैं जिन तक सामाजिक न्याय की हवा तक नहीं पहुंच सकी है या कहें नहीं पहुंचने दी गई है। जबकि यहां पासवान, संगमा और खोबरागड़े जैसे शासन-प्रशासन के घराने पैदा हुए पड़े हैं। ‘सुपर स्पेशियलिटी’ पदों पर आरक्षण के विषय पर तो हाल ही में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर सरकारों को चेताया है। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय भी ‘सामाजिक न्याय’ के नाम पर दलित ब्राह्मणों के उदय के मामले में चुप क्यों है, यह समझ में नहीं आता? हां! मैं इस देश के सबसे अधिक हाशिये यानि कि अनुसूचित जनजाति का दलित हूं, मैं भी यही चाहूंगा कि सामाजिक न्याय का कार्यान्वयन यदि इसी तरीके से होना है तो इसे समाप्त कर दिया जाना चाहिए।

यहां पर अनुसूचित जनजातियों के संदर्भ में एक विशेष ध्यान दिये जाने योग्य बात यह है कि क्या जनसंख्या के अनुसार देश के सबसे बड़े आदिवासी (अनुसूचित जनजाति) समुदायों/समाजों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में नौकरियों में हिस्सा और अन्य सुविधाएं मिल पाई हैं। मुझे लगता है ऐसा नहीं हो सका है। देश की सबसे बड़ी जनजातियों भील एवं गोंड जिनकी जनसंख्या 2001 की जनगणना के अनुसार क्रमश: 1,26,89,952 और 1,08,59,422 है, क्या उनको उस अनुपात में लाभ मिल पाये होंगे या फिर देश की समर्थ, सक्षम और समृद्ध जनजातियों ने उनके हिस्से को हज़्म कर लिया होगा, जिनकी जनसंख्या मात्र हजारों की है। इन आदिवासियों (वास्तविक) के हजारों बच्चे हिमाचल प्रदेश के ‘अनुसूचित जनजातीय’ लोगों के घरों में गुलामों की तरह काम करते हुए मिल जाएंगे, कुछ लोगों को बात कड़वी लग सकती है, परन्तु है सच्चाई। ‘सामाजिक न्याय’ या ‘आरक्षण’ के अन्यायपूर्ण बंटवारे के विरुद्ध उठ रही आवाज़ों को ‘मलाईदार परत’ का नाम देकर खारिज कर देना अनुचित और खतरनाक हो सकता है।

18 मार्च, 1956 के दिन आगरा में एक सम्मेलन में बोलते हुए डॉ. अम्बेडकर ने दलित समाज के पढ़े-लिखे लोगों के बारे में कहा था- ‘…….मुझे (मेरे) पढ़े-लिखे लोगों ने धोखा दिया, मैं सोचता था कि यह वर्ग मेरे समाज को लीड करेगा मगर यह अपना पेट भरने में मशगूल है’। इस बात से यह साफ हो जाता है कि इस वर्ग के समर्थ लोग किस तरह से अपना हित साधने में व्यस्त हो गए थे? यहां एक ऐसे महानुभाव हैं जो अपने को दलितों के राष्ट्रीय नेता के रूप में पेश करते हैं और जो कभी भाजपा, आरएसएस और मनुवादियों का पुरजोर विरोध करते हुए नज़र आते थे। जिनका चमकते एवं रोबदार चेहरे वाले फोटो के साथ एक साक्षात्कार 11 नवम्बर, 2001 के हिंदुस्तान टाईम्स में छपा था जिसमें उन्होंने साक्षात्कार की शुरू की पंक्तियों में कहा था, ‘…. आप आरएसएस और भाजपा के किसी भी कार्यालय में चले जायें वहां दीवारों पर आपको उनके संस्थापकों का एक नारा प्रमुखता से मिलेगा ‘वन हिन्दू लेस मीन्स हिंदुत्व इन डेंजर’ अर्थात ‘एक हिन्दू कम का अर्थ है हिंदुत्व खतरे में है’। लेकिन आज वही व्यक्ति भाजपा का सांसद है और आज उसे आरएसएस और भाजपा में अच्छाइयां ही अच्छाइयां दिखाई देती हैं। आज वह दलितों के एक छत्र नेता होने का दावा करता है और दलित हित में चिल्लाते हुए थकता नहीं और आरक्षण का सबसे बड़ा हकदार भी वह अपने को ही मानता है। उसी साक्षात्कार के अंत में उसने कहा था- ‘अब मैं एक अछूत या शूद्र नहीं हूं’, (क्योंकि उसने बुद्धधर्म अपना लिया था)। उससे आज हिंदुत्व, मनुवाद व आरएसएस एवं धर्मांतरण पर पूछे जाने पर वह दलील देता है कि उसने तो देशी धर्म अपनाया था जैसे कि एक रस्म निभानी हो। यह एक अलग विषय है कि बुद्ध धर्म भी आज हिन्दू धर्म की छायाप्रति बनकर रह गया है। कम से कम हिमालीयाई बुद्ध धर्म की स्थिति तो ऐसी ही है।

नोट: लेख, लेखक की अप्रकाशित पुस्तक संविधान के सामाजिक अन्याय खंड-5 के एक अध्याय पर आधारित है।

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