‘‘मैं बाबा साहब के कारण प्रधानमंत्री हूं…. ।’’ छतीसगढ़ के माओवाद से प्रभावित ज़िला बीजापुर में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर की 127वीं जयन्ती के अवसर पर बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहा। उन्होंने दलित संघर्ष के प्रतीक, समानता के पेरोकर, सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक न्याय के समर्थक और दलितों (अस्पृश्यों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं, उपेक्षितों, त्यजितों और सीमान्तों) के नेता डॉ. अम्बेडकर के नाम पर माओवादियों से हथियार छोड़ने की अपील भी की।

उधर डॉ. अम्बेडकर के जन्मस्थान मऊ में इस अवसर पर बोलते हुए देश के राष्ट्रपति राम नाथ कोविन्द ने कहा- ‘‘संपति पर महिलाओं के अधिकारों की मांग का दबाब बनाने के लिए उन्हों (अम्बेडकर) ने केन्द्र सरकार के केबिनेट से त्यागपत्र दे दिया….”।

जहां एक तरफ पूरे देश में अम्बेडकर जयन्ती मनाने की प्रतियोगिता सी चल रही थी। हर राजनैतिक पार्टी बढ़ चढ़ कर जयन्ती मनाने की कोशिश में थी। न सिर्फ दलित और दलित संस्थाएं बल्कि अन्य लोग, संस्थाएं और संगठन भी अम्बेडकर जयन्ती मना रहे थे। विदेशों से भी अम्बेडकर जयन्ती मनाने के समाचार प्राप्त हुए हैं। यहां तक कि वे लोग भी इसे मनाने की दौड़ में सबसे आगे दिखने का प्रयास कर रहे थे जो कभी अम्बेडकर को गालियां दिया करते थे। संस्थाओं में भी सिर्फ सामाजिक ही नहीं अपितु धार्मिक संगठन भी इस अवसर को मना रहे थे। इधर मेरे गांव बाशिंग में भी धूम धाम से अम्बेडकर जयन्ती मनाई गई। जिसकी अध्यक्षता प्रदेश के वनमंत्री गोविंद ठाकुर ने की और जिसमें ‘धाम’ (भोजन) की व्यवस्था भी की गई थी।

इस मामले में विशेषतौर पर ‘बुद्ध धर्म’ के अनुयायियों में बहुत उत्साह था। क्योंकि डॉ. अम्बेडकर ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में ‘बुद्ध धर्म’ अपनाया था। उनके साथ भी उनके बाद भी आज तक लाखों लोग हिन्दू धर्म छोड़ कर बुद्ध धर्म अपना चुके हैं। जहां विदेशों में भी ‘बुद्ध जगत’ में ख़ासी खुशी का माहौल था, वहीं अपने हिमाचल प्रदेश के ‘अनुसूचित (जनजातीय) क्षेत्र’ लाहौल के लोग जो कुल्लू में रहते हैं और अधिक संख्या में बुद्ध धर्म के अनुयायी हैं, ने 2013 से लगातार मनाई जाने वाली अम्बेडकर जयन्ती को मनाना इस वर्ष छोड़ दिया। यद्यपि पिछले वर्ष तक कई बार मुझे भी उसमें भाग लेने का सुअवसर प्राप्त होता रहा, लेकिन इस बार लाहौल के अनुसूचित जनजाति (अधिक बौद्ध) के लोगों ने बदाह गोम्पा में मनाया जाने वाला जयन्ती समारोह नहीं मनाने का निर्णय लिया।

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इस मामले में संस्था के अध्यक्ष, जोकि स्वयं एक बौद्ध भी हैं और कांग्रेस पार्टी के नेता भी, से जब मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि उनकी संस्था ‘बुद्धिस्ट कल्चर प्रिजर्वेशन सोसाइटी/लाहौल-स्पिती जनजातीय कल्याण सोसाइटी’ की कार्यकारिणी ने अम्बेडकर जयन्ती नहीं मनाने का निर्णय लिया था। जिसका कारण उन्होंने इस साल चल रही ‘गड़बड़’ को बताया। गड़बड़ से उनका मतलब अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम को कमजोर बनाए जाने के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध हुए दलित बंद और उसके बाद की स्थिति से था। इससे एक बात तो साफ हो जाती है कि कम से कम लाहौल-स्पिती के ‘बौद्ध’ अनुसूचित जनजाति के लोग अपने आप को न सिर्फ हिमालय क्षेत्र के अपितु मैदानी ‘बौद्धों’ से भी अलग दिखना चाहते हैं। परन्तु मेरी समझ से कृतघ्नता का कोई कारण नहीं हो सकता।

‘सोसाइटियों’ की कार्यकारिणी का फैसला सही भी था, क्योंकि सबसे अधिक ‘सुरक्षित खेलने’ वाला ही सबसे अधिक लाभ में भी रहता है। वैसे भी लाहौल (अब तो स्पिती के भी) के सब बौद्ध उच्च जातियों से हैं। लाहौल-स्पिति को अनुसूचित क्षेत्र का दर्जा दिये जाने के पीछे डॉ. अम्बेडकर की भूमिका को बताने पाने वाले ठाकुर देवी सिंह, ठाकुर शिव चंद आदि में आज कोई भी जीवित नहीं है, वही लोग बता सकते थे कि उनके संघर्ष को सफलता प्रदान करने में डॉ. अम्बेडकर का कितना योगदान था? जहां तक संविधान के अंदर लाहौल-स्पिती के ‘बौद्धों’ को एक अनुसूचित जनजातीय समुदाय के रूप में घोषित करने में डॉ. अम्बेडकर के योगदान का सवाल है, इस बात के साक्षी कोई भी जीवित नहीं हैं। लेकिन उस दौरान के संघर्षशील व्यक्तियों में एक ठाकुर शिव चंद जी के साथ मेरा बहुत निकट का सम्पर्क और गहरा सम्बंध रहा है। वे कहा करते थे कि वे अपने साथियों ठाकुर देवी सिंह आदि के साथ दिल्ली जाकर किस प्रकार बहुत से केंद्रीय नेताओं से मिले और अंत में किस प्रकार डॉ. अम्बेडकर से मिलकर लाहौल-स्पिति को अनुसूचित क्षेत्र घोषित करवाये जाने में सफल रहे और जिसके लिए डॉ. अम्बेडकर का क्या योगदान था? हिमाचल प्रदेश की शुरू में घोषित किये गये आठ अनुसूचित जनजातीय समुदायों में बौद्ध भी एक है।

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यह भी कि वह आरक्षण ही है, जिसके कारण आज लाहौल-स्पिती से कई आईएएस, आईपीएस, डॉक्टर, इंजीनियर तथा बिजनेस मेनेजर हैं, एक-2 गांव से सैंकड़ों प्रथम श्रेणी के अफसर हैं। इसके अतिरिक्त भी दिल्ली में बौद्ध होने के नाम पर धर्मांतरित बौद्धों (दलितों) के दम पर कितनों की राजनैतिक चलती है और कितने अन्य सुविधाओं का चटकारे ले-2 उपभोग करते हैं, यह काफी लोग जानते हैं।

कल ही लाहौल की एक बौद्ध संस्था के द्वारा मनाली में मनाई जाने वाली बुद्ध जयंती के लिए बुलावे का फोन था। लेकिन मैंने सादर उसमें शामिल होने में असमर्थकता प्रकट कर दी। इसका एक मात्र कारण था, लाहौल के बौद्धों द्वारा 14 अप्रैल को काफी समय से मनाई जाने वाली अम्बेडकर जयंती न मनाने का निर्णय लेना। अब यदि बौद्ध लोग और वे भी अनुसूचित जनजाति से संबध, संविधान निर्माता डॉ. अम्बेडकर की जयंती नहीं मनाने का निर्णय करते हैं तो मेरे जैसे गैर बौद्ध के बुद्ध जयंती में भाग लेने का क्या औचित्य ?

उपायुक्त कार्यालय, केलांग के अधीक्षक स्व. लाल चन्द जिन्हें लोग स्वामीजी बुलाते थे, लाहौल-स्पिती को अनुसूचित क्षेत्र घोषित किये जाने के बारे में डॉ. अम्बेडकर की महत्वपूर्ण भूमिका के बारे जिक्र किया करते थे। लेकिन बुद्ध धर्म के बारे में तो समस्त दुनिया जानती है कि 14 अक्तूबर, 1956 के दिन डॉ. अम्बेडकर ने अपने लाखों साथियों सहित बुद्ध धर्म की दीक्षा ही नहीं ली बल्कि 22 प्रतिज्ञाएं भी की। उन प्रतिज्ञाओं में बुद्ध धर्म के सिद्धांतों के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रतिज्ञाएं भी शामिल थीं। जिनमें महत्वपूर्ण प्रतिज्ञाएं थीं-
1.      भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार हैं, मैं इसे कभी नहीं मानूंगा, मैं ऐसे प्रचार को पागलपन और झूठा प्रचार समझता हूं।
2.      मैं बौद्ध धम्म के विरुद्ध किसी भी कार्य को नहीं करूंगा।
3.      मैं सभी मनुष्य समान हैं, इस सिद्धांत को मानूंगा।
4.      मैं समानता की स्थापना के लिए प्रयत्न करूंगा।
5.      मैं मनुष्य मात्र की तरक्की के लिए हानिकारक और मनुष्य मात्र को असमान तथा नीच मानने वाले अपने पुराने हिन्दू धर्म का पूरी तरह त्याग करता हूं और बौद्ध धम्म को स्वीकार करता हूं।
6.      मेरा यह पूर्ण विश्वास है कि बौद्ध धम्म ही सद्धम्म है।
7.      मैं यह मानता हूं कि अब मेरा नया जन्म हो रहा है।
8.      मैं यह पवित्र प्रतिज्ञा करता हूं कि आज से मैं बौद्ध धम्म की शिक्षा के अनुसार ही आचरण करूंगा।

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बौद्ध जगत को अम्बेडकर की उपरोक्त प्रतिज्ञाओं पर संजीदगी से विचार करना चाहिये। बुद्ध धर्म के सामने बहुत सी चुनौतियां होने के बावजूद आज लाहौल के ‘बौद्ध’ अनुसूचित जनजाति के लोगों ने अपने को ‘उच्च जातीय’ बौद्ध प्रमाणित करने के लिए डॉ. अम्बेडकर जयंती नहीं मनाई। यहां पर इस विषय पर भी विचार किये जाने की आवश्यकता है कि क्या बुद्ध धर्म से ‘महायान’, ‘हीनयान’ और ‘वज्रयान’ के अतिरिक्त एक अन्य शाखा ‘नवयान’ का निर्गम होगा? क्योंकि 14अगस्त, 2017 के फॉरवर्ड प्रेस में अपने लेख ‘आंबेडकर के नवयान के ज्ञानमीमांसीय आधार’ में सादाफ रुखसार युसुफ लिखती हैं कि बौद्ध धर्म में दीक्षा लेने से पहले 6 अक्तूबर,1956 को डॉ. अंबेडकर ने घोषणा की, “मैं बौद्ध के सिद्धान्तों को मानता हूं और उनका पालन करूंगा। मैं अपने लोगों (महारों) को दोनों धार्मिक पंथ- हीनयान और महायान के विचारों से दूर रखूंगा। हमारा बौद्ध धर्म एक नया बौद्ध धम्म है- नवयान।“ और भी ऐनी एम. ब्लेकबर्न के अनुसार अम्बेडकर बौद्ध धर्म, धर्म, समानता और राष्ट्रवाद को एक दूसरे से संबंधित शब्दावली समझते थे, जिसके सामाजिक और राजनैतिक निहितार्थ होते हैं। इस विषय में काशी विद्यापीठ वाराणसी के प्रो. कृष्ण नाथ का कहना है- ‘‘देश में नव बौद्ध आंदोलन डॉक्टर अम्बेडकर की 1956 में दीक्षा से शुरू हुआ है।’’ लेकिन इस बारे में डॉ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन पाली और बुद्धिस्ट स्टडीज़ रिसर्च सेंटर, नागपुर के बौद्ध विद्वान प्रो. (डॉ.) विमलकीर्ति का कथन है कि शुरू-2 में  नवबौद्ध या ‘नवयान’ का चलन हुआ था। लेकिन यह बहुत आगे नहीं चल पाया। डॉ. अम्बेडकर के अनुयायी अपने को नवबौद्ध नहीं, बौद्ध ही कहते हैं। परन्तु हिमालय के बुद्ध धर्म के हालातों को देखते हुए लगता है कि यह सामाजिक सरोकारों से बहुत दूर जा चुका है। किसी ने ठीक ही कहा है ‘नदी जब किनारा विहीन और आदमी कृतघ्न हो जाता है, यह अप्रिय घटना का संकेत होता है।‘