कुछ दिन हुए एक एफबी मित्र ने एफबी पर जानना चाहा था कि ‘इस बार लाहौल-स्पिती में चुनाव मुद्दे क्या होंगे?’ मैंने अपने कमेंट करते हुए लिखा ‘आपका यह प्रश्न ही गलत है, ठीक सवाल है, चुनाव के मुद्दे क्या होने चाहिए? प्रश्न सिर्फ इस बार के चुनावों का नहीं है, बड़े सवाल तो हर चुनाव में वही रहते हैं लेकिन कभी चुनावी मुद्दे नहीं बन पाते। सामाजिक-आर्थिक असमानता, गरीबी, शोषण जैसे बड़े प्रश्न कभी देश के चुनावी मुद्दे नहीं बन पाये।‘ अब क्योंकि लाहौल-स्पिती कई अर्थों में देश के अन्य क्षेत्रों से बिलकुल ही अलग है। देश का सीमावर्ती ज़िला होने के साथ-2 यह भौगोलिक, स्थलाकृतीय एवं सांस्कृतिक भिन्नता लिये हुए, कठिन एवं कठोरतम प्राकृतिक व जलवायु सम्बंधी दशाओं वाला क्षेत्र है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह एक अनुसूचित क्षेत्र और देश के अन्य आठ राज्यों के साथ ही देश के संविधान की पांचवीं अनुसूची में आता है और संविधान के अनुच्छेद 244(1) के अधीन शासित होता है। इस लिये इस क्षेत्र के अनुसूचित घोषित होने के दिन जो भी समुदाय या व्यक्ति यहां के स्थायी निवासी थे उन सब को स्वत: ही अनुसूचित जनजाति के होने का अधिकार मिल गया। अनुसूचित जनजाति के घोषित होने से यहां के स्थाई निवासियों को देश के अन्य भाग के अनुसूचित जनजाति के लोगों के बराबर ही संविधान द्वारा प्रदत सुरक्षाएं एवं सुविधाएं प्राप्त हुई। परन्तु इस तरह की घोषणा से पहले देश के हर हिस्से और समाज का समुचित अध्ययन नहीं किया गया। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि लाहौल-स्पिती देश के अन्य क्षेत्रों से कई अर्थों में भिन्न है। यह बात सिर्फ लाहौल-स्पिती के लिए लागू होती है, ऐसा नहीं है। यह देश इतना विशाल और बड़ा है कि किसी भी व्यक्ति का ज्ञान इसके बारे में पूर्ण नहीं हो सकता। संभवत: इसी लिए एलेक्ज़ेंडर ने अपने सेनापति से कहा था- यह देश बहुत विचित्र है। इसी विचित्रता व विविधता की पूर्ण जानकारी एवं सूचना के अभाव में लिखे गए संविधान, जिसे आज तक सुधारा नहीं गया। इन्ही कारणों ने आज इन समाजों, समुदायों तथा समूहों के अन्दर के अंतर्विरोधों और समस्याओं को उजागर किया है।
उपरोक्त ‘चुनाव के मुद्दे क्या होने चाहिए’ लिखने के पीछे मेरा आशय ही यह बताना है कि देश तथा अनुसूचित जनजाति के लोगों के विकास, भलाई व उन्नति हेतु बनाई गई योजनाओं, परियोजनाओं एवं कार्यक्रमों के लाभ भी पात्र लोगों तक नहीं पहुंच पाते। अनुसूचित जनजातीय लोगों की सुरक्षा एवं विकास के लिए पारित किये गए विधानो में कुछ समुदायों व लोगों के हितों को प्रतिकूल प्रभावित करते हैं या फिर उनके संदर्भ में लागू ही नहीं होते या उन्हें बिलकुल ही उपेक्षित कर देते हैं।
यद्यपि ये समस्याएं पूरे देश के अनुसूचित जनजातीय समाजों, समुदायों व समूहों पर सामूहिक व समान रूप से लागू होती हैं। लेकिन लाहौल-स्पिती के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र में इनके भिन्न आयाम एवं दुष्कर प्रभाव हैं। इन समस्याओं में पहली समस्या है अनुसूचित जनजातीय दलितों की। जिनका संविधान के लागू होने के 67 वर्ष बाद आज भी संवैधानिक अस्तित्व तक नहीं है। दूसरी समस्या है अनुसूचित जनजातीय महिलाओं का पैतृक संपति पर अधिकार न होना। तीसरी समस्या है ‘खङ् छिन’ (बड़ा घर) और ‘खिङ् छुन’ (छोटा घर)। ये बनने चाहिए तब तक हर चुनाव के मुद्दे जब तक कि इनका समाधान नहीं दे दिया जाता। यहां ध्यान देने की बात यह है कि इन तीनों वर्गों अनुसूचित जनजातीय दलित, महिला तथा ‘खिङ् छुन’ की समस्याएं अनुसूचित जनजाति के लोगों की समस्याओं के अतिरिक्त उनके अस्तित्व, अस्मिता एवं अधिकारों की भी हैं।
उपरोक्त समस्याओं में अनुसूचित जनजातीय दलितों के अस्तित्व, अस्मिता एवं अधिकारों से संबन्धित समस्या का एक कारण है संविधान द्वारा अनुसूचित जनजातीय समाजों, समुदायों तथा समूहों को समजातीय व एकखंडीय मान लेना। अनुसूचित जनजातीय लोगों की सुरक्षा एवं सुविधा हेतु समस्त विधान आदिवासी (ट्राइबल) दशाओं को आधार बनाकर बनाए जाते हैं। जो कि कई स्थानो पर जहां अनुसूचित जनजाति समुदाय न होकर समाज होता है वहां पर समस्याएं पैदा करता है। जिसका उदाहरण है पंचायत उपबन्ध (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम 1996। इस एक्ट के अनुसार अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत संस्थान के तीनों स्तरों पर अध्यक्ष (पंचायत प्रधान, समिति अध्यक्ष व ज़िला परिषद अध्यक्ष) का पद अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। जिसके कारण हिमाचल प्रदेश के अनुसूचित क्षेत्रों में दलितों (अनुसूचित जाति) के लिए आरक्षण समाप्त कर दिया गया और आज वहां दलित समाज का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। इस समस्या के समाधान के लिए सर्वप्रथम तो ‘ट्राइब’ और ‘शडयूल्ड ट्राइब’ के बीच के अंतर को समझना होगा। जहां ‘ट्राइब’ एक नृवैज्ञानिक अवधारणा है वहीं ‘शडयूल्ड ट्राइब’ एक संवैधानिक नामावली।
इसी के साथ जुड़े हुये दूसरे प्रश्न की तरफ भी लोगों का ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है और वह है अनुसूचित जनजातीय महिलाओं को पैतृक संपति पर अधिकार का न दिया जाना। यहां तक कि उनके नाम को वंशावली (शजरा नसब) से काट दिया जाता है। महिलाओं को पैतृक संपति पर अधिकार न देने के लिए पुरुष सत्ता द्वारा ‘ट्राइबल कस्टमस’ या ‘रिवाज-ए-आम’ का सहारा लिया जाता है। जो संविधान के समानता के मूल अधिकार अनुच्छेद 14 तथा 15(1) का उलंघन। उनका तर्क है कि लाहौल-स्पिती के कस्टमरी लॉ या रिवाज-ए-आम के अनुसार महिलाओं को पैतृक सम्पति पर अधिकार नहीं दिया जाता था। लेकिन मेरी पड़ताल का निष्कर्ष यह कहता है इन क्षेत्रों के मामले में ऐसा कभी रहा ही नहीं। अपनी छानबीन के दौरान मैंने ऐसे कई उदाहरण अपने गांव जाहलमा के ही पाये जिसमें महिलाओं के नाम पर ज़मीनों के इंतकाल हुए थे। यहां तक कि आज उन महिलाओं द्वारा गोद लिये गए व्यक्ति के उत्तराधिकारी उन महिलाओं के नाम पर इंतकाल शुदा पैतृक भू-संपति के मालिक हैं। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि इस मामले में कला, संस्कृति एवं भाषा अकादमी हिमाचल द्वारा ‘रेयर बुक सीरीज’ में प्रकाशित पुस्तक ‘ट्राइबल कस्टम’ ‘रिवाज-ए-आम’ (कुल्लू, लाहौल, स्पिती सेटलमेंट 1945-50), जो कि प्रश्न-उतर के रूप में है, में कहीं भी इस प्रकार महिलाओं के अधिकारों को नकारा नहीं गया है, जिन अर्थों में आज किया जा रहा है। आज रिवाज-ए-आम की आड़ में महिलाएं जो कि समाज का महत्वपूर्ण आधा हिस्सा हैं को उनके हक से वंचित किया जा रहा है।
तीसरी समस्या जो कि विशेष तौर पर स्पिती से जुड़ी हुई है। एक ऐसी समस्या अलग ही तरह की है। जिसमें ‘खङ छिन’ (स्थानीय भाषा का शब्द) जिसका अर्थ बड़ा घर है जिन्हें पैतृक सम्पति पर निर्विवाद रूप से पूर्ण अधिकार प्राप्त होते हैं और ‘खिङ छुन’ जिसका अर्थ छोटा घर है, जिन्हें पैतृक सम्पति पर कोई अधिकार नहीं होता। यानि कि घर के सबसे बड़े लड़के को पैतृक सम्पति पर पूर्ण अधिकार प्राप्त हो जाते हैं, शेष भाई-बहन पैतृक सम्पति से बेदखल हो जाते हैं। इसका वर्णन उपरोक्त 1945-50 के बंदोबस्त की पुस्तक में प्रश्न 40 में दिया गया है। जिसके उत्तर में लिखा गया है कि- समस्त ट्राइब्स में आयु का सवाल नहीं है। सब पुत्रों का बराबर हिस्सा होता है। स्पिती वजीरी में, सबसे बड़े पुत्र को उतराधिकार मिलता है जबकि छोटे लामा बन जाते हैं। उनमें भी तीन छोटे भाई सिर्फ भरण पोषण के अधिकारी होते हैं, जबकि अन्यों को कुछ नहीं मिलता। इस तरह के रिवाज क्यों बनाये गये इस पर अभी तक अध्ययन नहीं किया गया। ‘खङ् छिन’ और ‘खिङ् छुन’ जैसी व्यवस्था का कारण शायद आर्थिक रहे होंगे। क्योंकि स्पिती स्थलाकृति एवं जलवायु के लिहाज से एक कठिन रेतीला, शुष्क व ठंडा क्षेत्र है। पानी की नितांत कमी और सीमित क्षेत्र में वर्ष में सिर्फ एक फसल। इस क्षेत्र को आज हिमाचल प्रदेश के शीत मरुस्थल के रूप में जाना जाता है। इस प्रकार के प्रश्नो को अभी तक तथाकथित मुख्य धारा का प्रश्न ही नहीं माना गया। संभवत: इसी लिये इस किस्म के सवाल न तो किसी ने उठाये और न ही उठाने दिये गए।
अब प्रश्न यह उठता है कि परम्पराओं या रिवाज-ए-आम के नाम पर या फिर किसी अन्य हित या दबाब के अंदर समानता के अधिकार को कैसे नकारा जा सकता है? समानता का अधिकार जो कि संविधान में प्रदत मौलिक अधिकारों में एक है। इसके अतिरिक्त भी इन तीनों समस्याओं को सुलझाया जाना आवश्यक लगता है। इसके साथ ही क्योंकि ये समस्याएं सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक हैं। इसलिए इनका समाधान भी सामाजिक-राजनैतिक स्तर पर ही निकाले जाने चाहिए। इन समस्याओं का समाधान जितनी जल्दी हो सके उतना ही अच्छा होगा। अन्यथा हमारे डिजिटल होने का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। इस लिए हर चुनाव के मुद्दे यही मूल प्रश्न बनने चाहिए।
फिर शुरू में जा रहा हूं इस बार चुनाव के मुद्दे क्या होंगे, ऐसे सवाल करने के बजाए मुद्दे क्या होने चाहिए सवाल किए जाने चाहिए। क्यों मुद्दे भी वही तय करते हैं, समाधान भी वही देते हैं जो स्वस्थ प्रजातन्त्र के लिए ठीक नहीं है इसलिए कोई मंच हो जो तय करे कि इस बार ही नहीं हर बार के चुनाव के मुद्दे आम आदमी तय करे। प्रश्न मूल हों, शोषण के विरुद्ध समानता के समर्थन में। प्रयास हों समाज विविधता के साथ सामानांतर सह अस्तित्व पर आधारित व्यवस्था की दिशा में बढ़ने के।
लाल चन्द ढिस्सा
(सामाजिक कार्यकर्ता)