प्रदेश की राजधानी शिमला के रिज मैदान में राज्य के मुख्यमंत्री समेत बारह मंत्रियों के शपथ ग्रहण समारोह के समापन के साथ ही हिमाचल प्रदेश में अक्तूबर महीने से चल रहे विधान सभा चुनाव प्रक्रिया का पटाक्षेप हो गया। शिमला जैसे ठंडे स्थान पर, खुले में शपथ ग्रहण समारोह का आयोजन किया गया था, जिसमें शामिल होना भी साहस का काम था। आयोजन में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी नं. 1 भी मंच की शान बढ़ा रही थी। भाग्य के धनी जय राम ठाकुर को मुख्यमंत्री की कुर्सी छप्पर फाड़कर मिली थी। यह सही है कि सिराज में चुनाव प्रचार के दौरान अमित शाह ने जय राम ठाकुर को चुनाव जीतने पर बड़ी ज़िम्मेदारी दिये जाने की बात कही थी, यह नहीं मालूम था वह इतनी बड़ी थी या फिर उनके दिमाग में कुछ और चल रहा था। चुनाव प्रचार के दौरान और चुनाव परिणाम आने से पहले तक मुख्यमंत्री के पद के लिए दो व्यक्तियों के नाम चल रहे थे और वे थे जेपी नड्डा और प्रेम कुमार धूमल। चुनाव प्रचार के मध्य में मुख्यमंत्री के पद के लिए प्रत्याशी के नाम की घोषणा की मजबूरी के चलते पार्टी को धूमल के नाम की घोषणा करनी पड़ी। भाग्य देखिये, प्रदेश में दो तिहाई सीटें लेकर भाजपा जीती, लेकिन धूमल हार गए। बस यहीं से हालात बदल गए। आखिर जय राम ठाकुर को मुख्यमंत्री घोषित किया गया। फिर आई बारी न्यायालय के निर्णय के चलते सीमित मंत्री परिषद के गठन की, जिसमें समस्त प्रकार के हितों को ध्यान में रखा जाना आवश्यक था। ऊपरी और नीचे का हिमाचल, पार्टी के अंदर के तीन गुट, वरिष्ठ और युवा नेताओं के हिस्सेदारी, जातियों तथा अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के प्रतिनिधित्व का सामंजस्य बिठाना। कठिन काम को निपटा कर मंत्री मण्डल का गठन कर समस्त अटकलों पर रोक तथा भविष्य की उम्मीदों की समाप्ति।
इस कार्य से दो दिन पहले नये मुख्यमंत्री ने अपने पहले साक्षात्कार में अपनी कुछ प्राथमिकताओं का खुलासा कर दिया था जिसमें वीरभद्र सिंह द्वारा अपने जिन चहेते नौकरशाहों को सेवानिवृति उपरांत सेवा विस्तार व पुनर्नियुक्तियां दी गई थी, को बाहर करना बताया था। पिछली सरकार का यह अत्यन्त ही अविवेकपूर्ण निर्णय था, जिसने एक वर्ग और क्षेत्र के कुछ लोगों के व्यक्तिगत हितों को राज्य के हितों से ऊपर मानकर कार्य किए। इसके अतिरिक्त नए नौकरशाहों और नए विचारों को शासन-प्रशासन से दूर रखा। सरकार के इस कार्य से प्रदेश के लोगों विशेषकर युवाओं को आज नाराज़गी है। इस विषय पर मैं भी कई बार लिख चुका हूं। यहां तक कि चुनाव परिणामों के घोषित होने के बाद लिखे अपने एक लेख ‘आखिर हिमाचल प्रदेश को विधायकों में ही मुख्यमंत्री मिल गया’ में लिखा था- ‘वीरभद्र सिंह ने 2012 में सत्ता संभालते ही सबसे पहला काम जो किया वह था अपने पसंद के रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट्स को महत्वपूर्ण पदों पर बिठाना। 2012 से 2017 के बीच राजा साहब का चहेता कोई भी ब्यूरोक्रेट सरकार से बाहर नहीं गया, उन्हें सेवा विस्तार या पुनर्नियुक्ति दी गई। कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष सुखबिंदर सुक्खू ने हाल में चुनाव जीतने के बाद दिये एक इंटरव्यू में यह बात कही थी।‘
हिमाचल प्रदेश के इस बार के चुनाव शुरू से लेकर अंत तक बड़े ही नाटकीय ढंग से चले। इस बार तो दिल्ली से चुनाव आयोग भी प्रदेश पर मेहरबान रहा। आयोग द्वारा चुनावों की घोषणा में गुजरात से अलग व पहले करवा कर राज्य पर लम्बा राजनैतिक शीतनिष्क्रियता लाद दी गई। चुनाव में दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों के अतिरिक्त अन्य पार्टियों के द्वारा लगभग मैदान खाली छोड़ देना, फिर चुनाव परिणामों में भाजपा का दो तिहाई बहुमत से जीतना और पार्टी के मुख्यमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार का चुनाव हार जाना और वर्तमान मुख्य मंत्री जय राम ठाकुर की लॉटरी लगना। अंत में मंत्री मण्डल का गठन। सब बड़े नाटकीय ढंग से पूरा होता रहा। आखिरी स्टेज पर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर किस तरह स्वतन्त्रता, पारदर्शिता एवं निष्पक्षता से अपने मंत्रियों का चयन कर सके। इस बात का प्रमाण है उनके द्वारा अपने केबिनेट में लिए गए मंत्रियों की सूची।
यह बताया जाना बहुत आवश्यक है कि जय राम ठाकुर किस प्रकार के दबाव के अधीन काम कर रहे थे। उसका प्रमाण है उनके द्वारा चयनित मंत्री मण्डल के सदस्यों की सामाजिक पृष्ठभूमि और वर्गीय प्रतिनिधित्व। प्रदेश को जनसंख्या के जातीय आधारों और उसके अनुरूप मंत्रियों के चयन को देखें तो स्थिति कुछ ऐसी बनती है। राज्य में सबसे अधिक जनसंख्या राजपूतों या ठाकुरों की है उसके बाद दूसरे स्थान पर अनुसूचित जातियों की तीसरे स्थान पर पिछड़ों तथा अन्यों, उसके बाद चौथे स्थान पर ब्राह्मणों तथा अंत में पांचवें स्थान पर अनुसूचित जनजातियों की है। नए मंत्री मण्डल में 34-37% राजपूतों को कुल 12 मंत्रियों में मुख्यमंत्री समेत 6 स्थान दिये गए उसके बाद 12-15 % ब्राह्मणों को 2, 6% अनुसूचित जनजाति को 1, 15-17% पिछड़ा वर्ग तथा अन्य को 2, जिसमें किशन कपूर (धर्मशाला) गद्दी समुदाय से हैं लेकिन अनारक्षित सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं तथा 25% अनुसूचित जाति को मात्र 1 स्थान दिया गया है। जबकि न्यायोचित हिस्सा राजपूत 4, अनुसूचित जाति 3, ब्राह्मण 2, अनुसूचित जनजाति 1 तथा पिछड़ा वर्ग तथा अन्यों 2 मंत्री बनता है। इसके अतिरिक्त विधान सभा अध्यक्ष पद पिछड़ा वर्ग तथा अन्यों को दिया जाना चाहिए था। जो चयन पर सवाल उठाने के लिए काफी है। यह ‘जनेऊधारी’ और ‘गैर जनेऊधारी हिन्दू’ का असर तो नहीं?
जहां तक भौगोलिक क्षेत्र के आधार मंत्री मण्डल में प्रतिनिधित्व की बात करें तो स्थिति कुछ ऐसी बनती है। 4 जिलों चम्बा, हमीरपुर, बिलासपुर और किन्नौर को मंत्री मण्डल में स्थान नहीं मिल पाया है। जबकि 5वें ज़िला सिरमौर से विधानसभा अध्यक्ष लिया गया है। इसके अतिरिक्त राज्य के सबसे बड़े ज़िले कांगड़ा जहां की 15 विधानसभा सीटों से 4, 10 विधानसभा सीटों वाले ज़िला मण्डी से 3, ऊना के 5 सीटों से 1, सोलन की 5 सीटों से 1, शिमला की 8 सीटों से 1, कुल्लू की 4 सीटों से 1, तथा लाहौल-स्पिति की 1 सीट से 1 मंत्री बनाए गए हैं। जो फिर सोचने पर मजबूर करता है। यहां फिर मुख्यमंत्री इन्साफ करने में नाकामयाब रहे हैं। क्योंकि चार जिलों, जहां से 15 विधायक आते हैं, को कोई प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है। उल्लेख योग्य यह भी है कि ज़िला लाहौल-स्पिति को इस बार 40 साल बाद केबिनेट मंत्री दिया गया है। पिछले बार 1977 में यहां से देवी सिंह ठाकुर को केबिनेट मंत्री बनाया गया था।
एक मज़ेदार बात यह नोट की गई है कि 2011 जनगणना के अनुसार राज्य में 25% अनुसूचित जाति की आबादी है और राज्य के 68 विधायकों में 17 सीटें अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। इस बार उन 17 सीटों में 13 स्थान पर भाजपा विजयी रही। लेकिन मंत्री मण्डल में उन्हें सिर्फ एक स्थान मिल पाया है। एक अन्य बात इस बार की विधानसभा में 4 महिलाएं जीत कर आई हैं उनमें से 2 अनुसूचित जाति, 1 पिछड़े वर्ग तथा मात्र 1 साधारण वर्ग से है। उनमें भी अनुसूचित जाति की दोनों महिला विधायक भाजपा से हैं। 2012 के चुनाव में अनुसूचित जाति के 17 विधायकों में से 10 कांग्रेस पार्टी के थे और उन्हें 2 मंत्री पद मिले थे। इस बार अनुसूचित जाति के साथ अन्याय हुआ है। नये मुख्य मंत्री ने भले ही मंत्री मण्डल का गठन कर लिया हो लेकिन भाजपा के सभी कार्यकर्ता इससे संतुष्ट नहीं लगते। इसका प्रमाण है बरागटा के समर्थकों द्वारा मंत्री मण्डल के गठन के तत्काल बाद शिमला में विरोध प्रदर्शन व धरना।
नई सरकार के सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं, उन चुनौतियों में प्रदेश की अर्थव्यवस्था से जुड़े प्रश्न तो हैं ही क्योंकि अभी तक प्रदेश अपनी अर्थव्यवस्था को कोई ठोस और टिकाऊ आधार नहीं दे पाया है। प्रदेश की आय प्रदेश के वार्षिक बजट का 52% बनती है उसके अतिरिक्त बजट को पूरा करने के लिए उसे ऋणों और केंद्रीय अनुदानों पर निर्भर रहना पड़ता है। इस से भी बड़ी समस्या बजट व्यय है, 2017-18 के वार्षिक बजट में कुल बजट का 40.74% तो सिर्फ वेतन एवं भत्तों पर खर्च होना था। ऋणों की वापसी और ब्याज पर 19.45%। कुल मिलाकर विकास के लिए मात्र 39.55% ही बच पाता है। इस लिए प्रदेश के विकास दर को राष्ट्रीय विकास दर के बराबर रखने के लिए योजना व्यय बढ़ाना और गैर योजना व्यय को घटाना एक चुनौती है। इस विषय में भी मैंने चुनाव प्रचार के दौरान एक लेख ‘आर्थिक प्रश्न भी उठाए जाने चाहिए भावी शासकों के सामने’ में राज्य के 2017-18 के बजट की तस्वीर दी थी। जिसके अनुसार राज्य के विकास के लिए सिर्फ 14152 करोड़ रुपयों का प्रावधान किया गया है जबकि वेतन भत्तों के लिए 14578 करोड़ रखे गए हैं। जिसका अर्थ यह निकलता है कि प्रदेश के 3.5 लाख कर्मचारियों व पेंशनरों को 4,16,514 रुपए प्रति व्यक्ति वार्षिक तथा 70 लाख हिमाचल वासियों के हिस्से में 20217 रुपये प्रति व्यक्ति/प्रति वर्ष आएंगे।
दूसरी बड़ी चुनौती है सामाजिक क्षेत्र, जिसमें शिक्षा, स्वास्थय, पर्यावरण, यातायात, संचार, बेरोजगारी, किसानों की समस्याएं तथा सामाजिक सुरक्षा के मुद्दे सम्मिलित हैं, ये सब नई सरकार के सामने चुनौती के रूप में खड़े होंगे। शिक्षा के स्तर में दिन प्रतिदिन गिरावट आती जा रही है। कई सर्वेक्षणों के हवाले से बताया गया है कि प्रदेश में पांचवीं कक्षा के छात्र अपने पाठ को भी सही तरह से पढ़ नहीं सकते। गणित और अन्य विषयों की बात ही दूर है। जहां सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या कम हो रही वहीं पर निजी स्कूलों में अच्छी और अंग्रेज़ी माध्यम से शिक्षा के नाम पर गली-2 में शिक्षा की दुकानें खुल रही हैं। यहां तक कि सरकारी स्कूलों के अध्यापक भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भर्ती करवा रहें हैं। जिसका परिणाम है सरकारी स्कूलों में पढ़ने वालों की संख्या कम होना, कई स्कूल तो ऐसे हैं जहां बच्चों से अधिक शिक्षक हैं। राज्यपाल को एक पत्र द्वारा मांग की थी कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय उस निर्णय में कहे को हिमाचल प्रदेश में भी लागू किया जाये। याद रहे इसमें निर्णय में कहा गया था कि सरकारी अधिकारियों व जन प्रतिनिधियों के बच्चों की पढ़ाई सरकारी स्कूलों में सुनिश्चित की जाये।
जन स्वास्थय के मामले में भी प्रदेश की स्थिति अच्छी नहीं है। सरकार ने अस्पतालों, स्वास्थय केन्द्रों, उपकेन्द्रों, आयुर्वेदिक, होम्योपेथिक डिस्पेंसरियों और अस्पतालों की बड़ी-2 बिल्डिंग तो बना दी हैं लेकिन वहां पर डॉक्टरों, पेरा मेडिकल कर्मचारियों की तथा अन्य सुविधाओं की कमी आम देखी जाती है। सरकारी अस्पतालों में मरीजों के साथ जो व्यवहार होता है उसके चलते या तो वह बिना उपचार के मर जाते हैं या फिर अपनी जमीने बेच कर निजी स्वास्थय सेवा के नाम पर खुली दुकानों, जहां चिकित्सालय का नहीं कसाईघर का व्यवहार किया जाता है, की फ़ीसें भरते हैं और महंगा इलाज करवाने के लिए मजबूर किए जाते हैं। जबकि सरकार कई तरह की सुविधाएं और छूट इन निजी अस्पतालों को प्रदान करती है। अब तो लगभग सभी सरकारी कर्मचारियों तथा पेंशनरों को निजी अस्पतालों में उपचार की अनुमति भी दे दी गई है, जिसके चलते ये अस्पताल सरकार से हर साल मोटी-2 रक़में एंठते हैं। दूर, कठिन व पिछड़े क्षेत्रों तक स्वास्थ्य सेवाओं का न पहुंचना साथ ही उपचार सीमा से अधिक महंगा होना भी प्रश्न हैं। इस प्रकार गंभीर किस्म के मरीजों की मौत तो कई बार अस्पताल के रास्ते में ही हो जाती है। इसका लाहौल एक बड़ा उदाहरण है, यहां के कई मरीजों की मौत कुल्लू के रास्ते ‘रोहतांग’ में हो चुकी है।
इसके अतिरिक्त युवाओं की रोजगार की समस्या, किसानों की कृषि उपज के उचित दाम न मिलने का प्रश्न। हिमाचल जैसे पहाड़ी राज्य के अंदर भी आज पर्यावरण के असंतुलन की समस्या दिन-ब-दिन विकराल होती जा रही। असंतुलित विकास के चलते वायु, जल के प्रदूषण की समस्या। जिसके कारण राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) को भी रोहतांग के मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा है, जिससे कि यहां के जल और वायु का प्रदूषण नियंत्रण में रहे। । यह प्रदूषण किस सीमा तक पर्यावरण बिगाड़ देता इसका उदाहरण है दिल्ली के हालात। इस प्रकार के हालातों के लिए जिम्मेदार हैं यातायात, पर्यावरण तथा औद्ध्योगिक नीतियां। सामाजिक सुरक्षा में वरिष्ठ नागरिकों, बच्चों तथा महिलाओं से संबन्धित समस्याएं भी चुनौतियों के रूप में हैं। प्रदेश में सामाजिक सुरक्षा के मामले में बहुत कम कार्य किया गया है। बुढ़ापा पेन्शन बहुत कम कम और इसे पाने के लिए आवश्यकता से अधिक औपचारिकताएं निभाने को मजबूर किया जाता है। यद्यपि संचार क्रांति एवं सड़कों के विस्तार के लिए प्रदेश के कई क्षेत्रों में फोरलेन तथा संपर्क सड़क के कार्य ज़ोर शोर से जारी हैं फिर भी न सिर्फ दूर दराज के क्षेत्रों में बल्कि सदर क्षेत्रों में भी यातायात और संचार की समस्याएं आज भी चल ही रही हैं।
इन समस्त चुनौतियों का सामना करने के लिए नई सरकार को दूर की सोच, एकाग्रचित, कठिन परिश्रम और धैर्य के साथ कार्य करने होंगे। इसके लिए नई सरकार को धनाढ्य वर्ग निमित्त के बजाय निर्धन निमित्त नीतियां बनानी पड़ेगी। आमजन के साथ सहयोगी रवैया अपनाना पड़ेगा। जिसमें सार्वजनिक शिक्षा, सार्वजनिक स्वास्थय सेवा तथा सार्वजनिक यातायात को सुदृढ़ करने को प्राथमिकता बनाना पड़ेगा। प्रचारित तो किया जा रहा था कि नए मुख्यमंत्री एक गरीब परिवार से आते हैं परन्तु देखना है क्या वे गरीबी के दर्द को याद रख पाते हैं। या प्रधान मंत्री के अपने को ‘चाय बेचने वाला’ प्रचारित करके ‘गुजरात मॉडल’ विकसित करना, जिसमें गरीब कहीं नहीं दिखता को अनुसरण करना होगा ?
चलते-चलते :- प्रदेश के नये मुख्यमंत्री के पहले साक्षात्कार में दिये पहले ब्यान ‘रिटायर्ड, टायर्ड एंड हायर्ड….फायर्ड’ लागू करने में सत्ता संभालने के पांच दिनो में ही हार जाना तकलीफ देय है। 1 जनवरी, 2018 को नई सरकार ने चार महीने का पहला सेवा विस्तार दिया है विधान सभा सचिव सुंदर सिंह वर्मा को। अब और भी 1200 पटवारियों की पुनर्नियुक्ति को भी जारी रखने का निर्णय लिया गया है।