उधर प्रधान मंत्री ने ‘मून प्रोजेक्ट’ के तहत चांद पर बिजली बनाने की योजना बनाई , इधर हिमाचल प्रदेश में जय राम ठाकुर ने शिमला में ‘प्लास्टिक की नदी’ बहा कर दिखा दी। लेकिन इसका क्या किया जाये कि एनजीटी एक बार फिर कबाब में हड्डी बन गया और हिमाचल प्रदेश सरकार से जबाब तलब कर लिया है। कल ही भोपाल से निकलने वाली हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका में डॉ. श्री गोपाल काबरा के एक लेख ‘कैंसर उपचार’ में पढ़ा था ‘आग का दरिया और तैर कर…..’, आज अपनी राजधानी में ‘प्लास्टिक की दरिया’ बहने की खबर पढ़ने को मिली।

यहां बताते चलें कि हिमाचल प्रदेश देश का पहला प्लास्टिक का प्रयोग बन्द करने वाल राज्य है। यहां पर प्लास्टिक का प्रयोग 2009 से बन्द है और पकड़े जाने पर 5000 रुपयों के जुर्माने की व्यवस्था होने के बावजूद ‘दरिया बहाने’ की हद तक का प्लास्टिक कहां से आ गया, यह तो सरकार से अवश्य पूछा जाना चाहिए?

यह मामला सिर्फ अश्वनी खड्ड शिमला का ही हो ऐसा नहीं है, अपितु पूरे राज्य का हाल ऐसा ही है। आज कल बरसात के दिनों में यहां कुल्लू में जैसे ही ब्यास नदी का जल स्तर बढ़ता है तो नदी के ऊपर बड़ी मात्रा में प्लास्टिक, थर्मोकोल और पोलिथीन से बनी वस्तुएं बहती हुई दिखती हैं। सिर्फ स्थानीय व्यापारी और स्थानीय लोग ही पोलिथीन और प्लास्टिक थेलों का प्रयोग नहीं कर सकते। शेष हर माल बदस्तूर उसी तरह पोलिथीन या प्लास्टिक में पैक आता है। इस पर एक राष्ट्रीय नीति होनी चाहिए जो सम्पूर्ण देश में बराबर लागू हो।

यह उस राज्य का हाल है जहां की सरकार दावे करते हुए थकती नहीं कि प्रदेश को स्विट्जरलेंड की तरह पर्यटक स्थल बनाने का कार्य युद्ध स्तर पर शुरू है। अब तो केंद्रीय पर्यटन मंत्री श्री अलफोंसे साहब आ कर यहां, विशेषकर लाहौल के युवाओं को अति उत्साहित व उत्तेजित कर गए हैं। ऐसा लगता है कि अति शीघ्र लाहौल को स्विट्ज़रलेंड की तरह अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक स्थल बना दिया जाएगा। इस सिलसिले में एक बड़ा इवेंट भी करवाया जा चुका है। सुना है इस इवेंट का मुख्य आकर्षण सौंदर्य प्रतियोगिता थी, जिसमें अन्य बातों के अतिरिक्त प्रतिभागी महिलाओं के शरीर के अंगों को मापा जाता है। जैसे कि वे इंसान न होकर वस्तु हों। और भी टूरिज़म वह भी ‘इको टूरिज़म’, हनुमान चालीसा की भांति ‘इको टूरिज़म’ का पाठ किया जा रहा है। ‘गूगल’ देव से पूछ डाली जा रही है, भेंट चढ़ाई जा रही है।

अपने यहां के सोशल मीडिया में ‘इको-टूरिज़म’ की चर्चा उच्च स्तर पर हो रही है। एक दूसरे की पीठें थपथपाई जा रही हैं। मंत्रियों के गुणों की तारीफ़ें, स्तुति की हद तक की जा रही हैं। पर्यटन को राम नाम की तरह जपा जा रहा है। लोग पर्यटन के नाम पर पागल हुए जा रहे हैं। जैसे यह पर्यटन नहीं कुतुब मीनार हो, जब दिल किया चढ़े, दिल किया उतर गए। अपने मुख्यमंत्री साहब तो पर्यटन के पीछे ही पड़ गए हैं। पर्यटन के साथ जुड़ी हर सुविधा और सुरक्षा की पूरी व्यवस्था करने के बाद (जैसे सरकारी दावे हैं) भी मारे-मारे घूम रहे हैं।

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‘इको टूरिज़म’ ही नहीं टूरिज़म को समग्रता में समझना हो तो अंडेमान-निकोबार, केरल, गोवा के आदि पर्यटन क्षेत्र के विकास को समझना चाहिए। पड़ौस का कश्मीर एक बड़ा उदाहरण है। ‘इको टूरिज़म’ का सबसे बड़ा और अमानवीय चेहरा है, अंडेमान-निकोबार के ‘जारवा’ ट्राइब के साथ हो रहा व्यवहार। हमारी सिविल सोसायटी के अधिक सभ्य लोग वहां पर ‘हयुमेन सफारी’ चलाते हैं। वहां नंगी रहने वाली आदिवासी महिलाओं को दिखाने का अतिरिक्त पैसा बसूला जाता है, अधिक सभ्य पर्यटक, जो धनी होता है इसलिए इज्जतदार भी, खुशी से दे देता है। टूरिज़म के नाम पर राजस्थान के बड़े-2, महलों (जिन्हें होटल में बदला दिया गया है) में धनाढयों के लिए ऐशगाहें चलाई जाती हैं। क्षेत्र की संस्कृति और सभ्यता की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। महानगरों के बड़े पैसे वाले ‘वीक एंड’ मनाने यहां पहुंचते हैं और इन ऐशगाहों में गरीब की इज्ज़त लूटते हैं और सिनेमा के सीन की तरह ठहाके लगाते हैं।

संस्कृति के संवर्धन, मुख्यधारा में लाने और विकास के नाम पर आदिवासियों को सींग और पूंछ लगा कर ‘बड़े लोगों’ के सामने नचाया जाना भी पर्यटक आकर्षण का एक आवश्यक अंग समझा जाता है।

मेरी मनाली जो कि अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन स्थल के रूप में प्रसिद्ध हो चुकी है, को पर्यटन ने किस तरह का विकास दिया है। इसके उदाहरण प्रस्तुत करना चाहता हूं। पिछली बार कुछ दिन पहले मैं जब मनाली गया था तब पता चला कि मनाली के व्यापार मण्डल, होटलियर्स एसोसिएशन आदि ने मिलकर एक बड़ा जुलूस निकाला था और प्रशासन से ‘देह व्यापार बंद करवाने’ की मांग की थी।

दूसरी बार गया तो पाया कि कुल्लू की ओर से मनाली में प्रवेश करने से करीब तीन कि. मी. पहले रांघड़ी नाम के स्थान से ही महानगरों की तरह असहनीय दुर्गन्ध आ रही थी। पता चला कि मनाली का सब कचरा यहीं पर डाला जाता है और निपटान की कोई व्यवस्था नहीं है। जबकि पहले मनाली प्रवेश से पहले ‘देव दियार’ और अन्य पेड़-पौधों की सुगन्ध से मन-मस्तिष्क तरोताज़ा हो जाते थे। ऊपर से दावे किए जाते हैं कि पर्यटन के कारण यहां की  आय में वृद्धि हुई है। यह भी पता चला कि मनाली प्रवेश से पहले पर्यटकों से ‘ग्रीन टेक्स’ भी बसूला जाता है। समझ नहीं आता है कि उस उगाही को कहां प्रयोग किया जाता है?

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एक अन्य बात, मैं 1 बजे दोपहर से 5:30 शाम तक मनाली में रहा, लेकिन 5 बजे तक प्यासा रहा। क्योंकि मनाली के चाय पानी की दुकानों में दिया जा रहा पानी पीने के योग्य नहीं था। चाय पानी की दुकाने पर्यटकों की बजह से अब्बल तो स्थानीय आम आदमी के आने जाने की सामर्थ्य से बाहर हो चुकी हैं, यदि हैं भी तो वहां पीने के लिए मिट्टी वाला पानी दिया जा रहा था। अब, क्योंकि मैंने 2006 से बोतल बन्द पानी पीना छोड़ रखा है, इस लिए खरीद कर न पी सका कारणवश यह समस्या सामने आई। शाम को 5 बजे गुरुद्वारा रोड़ पर एडवोकेट लेख राज जिनके पास मैं गया था, ने मिशन अस्पताल से पानी मंगवा कर मेरी प्यास बुझाई। यह हालात हैं विश्व विख्यात पर्यटन नगरी मनाली के। और आज समाचारों से ज्ञात हुआ है कि मनाली के आसपास क्षेत्रों में डायरिया फैल रहा है। ऊपर से तुर्रा प्रदेश को पर्यटन राज्य बनाने का।

उधर गर्मियों के दिनों में न सिर्फ शिमला, मनाली और अन्य पर्यटक स्थलों का बल्कि पूरे राज्य का पानी के बिना बुरा हाल रहता है। राज्य के लोगों की तो नियति बन चुकी है गर्मियों के आहट के साथ ही उनकी जान सांसत में पड़ जाती है। पानी के लिए त्राहि-2 मच जाती है। इस बार तो बेचारे पर्यटकों को भी पानी की कमी को झेलना पड़ा। यह भी पता चला कि शिमला के पर्यटन व्यवसाय से जुड़े लोगों को भी इससे घाटा उठाना पड़ा। पानी की कमी के चलते शिमला ज़िले के स्कूल एक सप्ताह के लिए बंद करने पड़ गए थे। उसी शिमला में पानी की क्या स्थिति थी इस बारे में इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार मात्र तीन दशक पहले शिमला में इतना अधिक पानी था कि माल रोड़ को प्रतिदिन धोया जाता था। आज पानी के लिए जानें जा रही हैं। यह है वर्तमान के विकास मॉडल का परिणाम। ‘पधारो म्हारे देस, पाणी लेके’। ऐसा कहने की स्थिति हो गई थी अपने यहां की, इस बार। पूरे प्रदेश में मई के शुरुआत से लोगों को पीने का पानी नहीं मिल पा रहा था। लेकिन व्यवस्थापक दिखा रहे थे ‘यहां सब कुछ ठीक ठाक है’। जबकि राज्य का पूरा शासन-प्रशासन जल आपूर्ति विभाग में बदल गया था। शहरों और आसान पहुंच के क्षेत्रों के लोगों को तो टेंकरों से पानी दिया जा रहा था। परन्तु गांव तथा दूर दराज के क्षेत्रों के लोगों को कई-2 कि. मी. दूर से पानी ढोकर गुजारा करना पड़ा।

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ये सब हैं ‘मेजबान क्षेत्र’ और ‘मेजबान लोगों’ को विकास के इस चमकदार रास्ते पर्यटन के तोहफे।

1995 में जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय और टाटा समाज विज्ञान संस्थान, मुंबई के द्वारा ‘विस्थापन, पुनर्स्थापना एवं भविष्य की नीतियां’ विषय पर आयोजित तीन दिवसीय सम्मेलन में समन्वय की ओर से ‘पर्यटन’ पर बोलते हुए मैंने कहा था- ‘विकास के ज्ञात तरीकों में सबसे जोखिम भरा रास्ता है ‘पर्यटन’। यह न सिर्फ भौतिक विस्थापन साथ लाता है, अपितु नैतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, मानसिक सब तरह के विस्थापन और पतन को साथ लेकर चलता है ……।’ इस विषय में जैसा कि ऊपर बताया गया है कि अभी कुछ दिन पहले पर्यटन नगरी मनाली जिसे अंतर्राष्ट्रीय पर्यटक स्थल होने का गौरव प्राप्त है, में व्यापार मण्डल, होटल एसोसिएशन, मनाली, मनाली कई अन्य संगठनो तथा गणमान्य लोगों को एक बड़ा जुलूस निकल कर सरकार से ‘देह व्यापार बंद करवाने’ की मांग करने पर मजबूर होना पड़ा। इससे भी यह अनुमान लगाया जा सकता है कि पर्यटन, विकास का कितना सुरक्षित मार्ग है ?

इस विषय में राष्ट्र को समर्पित संस्था सद्प्रयास द्वारा ‘पर्यटन- विकास का एक मार्ग’ विषय पर कुल्लू में आयोजित तीन दिवसीय (11-13 जनवरी, 1997) राज्य स्तरीय कार्यशाला में गहन विचार-विमर्श एवं चिंतन के उपरान्त महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले गए थे, जो आज भी प्रासंगिक हैं। जिनमें कुछ निम्न हैं:

1.      पर्यटन संबन्धित प्रत्येक प्रक्रिया नियोजन, क्रियान्वयन तथा मूल्यांकन में स्थानीय लोगों की भागीदारी तथा सहमति अनिवार्य हो।

2.      सम्पति (भूमि) के स्वामित्व परिवर्तन में स्थानीय समुदाय की पूर्व सहमति अनिवार्य हो। इस प्रकार के दस्तावेजों (सेल डीड), में (क) बेचने का कारण तथा (ख) खरीदने का उद्देश्य स्पष्ट तौर पर लिखें गये हों।

3.      पर्यटन से प्राप्त आय का कम से कम 25% भाग मेजबान लोगों और क्षेत्र के विकास पर खर्च होना अनिवार्य हो।

4.      पर्यटन व्यवसाय के अनियोजित एवं अनियंत्रित विकास के कई प्रकार के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, नैतिक, मानसिक, पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकीय दुष्प्रभाव सामने आए हैं, जिनमें मुख्य हैं नशा तथा नशीली दवाओं का उत्पादन, व्यापार तथा उपभोग, प्रदूषण (मानसिक, नैतिक तथा भौतिक), एडस, अपसंस्कृति, वैश्यवृति, जुआ तथा दूसरे शोषण न हों।

5.      पर्यटन विकास से कई स्थानों पर राष्ट्रीय सुरक्षा को भी खतरा पहुंचने का अंदेशा है।

6.      पर्यटन विकास ने एक बार फिर से सांमतवादी विलासिता की संस्कृति को पुनर्जीवित किया है। अत: पर्यटन पर:
(क)     एक राष्ट्रीय नीति बनाई जाए।
(ख)      पर्यटन नियोजित तथा नियंत्रित हो।