‘नोटबंदी’ की सच्चाई प्याज की तरह परत-दर-परत खुल रही है। 8 नवंबर, 2017 को नोटबंदी को किये हुए एक पूरा साल बीत चुका है, लेकिन उसके चर्चे आज भी उसी उत्साह के साथ चल रहे हैं। इस एक साल में यानि 8 नवंबर, 2016 से आज तक उसकी आवश्यकता, तर्क, समय, उदेश्य, योजना, लागू करने के तरीके आदि को लेकर बहुत बड़ी बहस चली। बहुत से अर्थशास्त्रियों, बुद्धिजीवियों, आमजन यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री ने भी इस पर कई सवाल उठाये। पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने तो यहां तक कहा कि ‘नोटबंदी संगठित लूट है’। नोटबंदी के इस हद तक सवालों के घेरे में रहने के बाबजूद सरकार आज तक कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाई है। बल्कि इस प्रश्न के उठते ही वितमंत्री और प्रधानमंत्री तक इसे टालने का प्रयास करते हुए दिखते हैं। जिस प्रधानमंत्री ने इसे स्वयं घोषित किया था और रामबाण की तर्ज़ पर ‘नोटबंदी’ को लोगों के सामने पेरा किया था। उसी कार्य का वह न तो औचित्य सिद्ध कर पाये और न ही उससे हुए लाभ को दिखा पाये। कहने को तो इसके आर्थिक उद्देश्य बताए गए, लेकिन कार्य यह शुद्ध राजनैतिक लाभ प्राप्त करने का था। नोटबंदी के तीन मुख्य उद्देश्य लोगों के सामने रखे गए- कालाधन बाहर लाना, नकली मुद्रा की समाप्ती और आतंकवाद की फंडिंग पर रोक लगाना। लेकिन आज एक साल बाद भी उन तीन उद्देश्यों को प्राप्त करना तो दूर, छूआ तक नहीं जा सका।
वित्त व्यवस्था के अंदर एक नामावली प्रयोग होती है जिसे ‘विमुद्रीकरण’ कहते हैं, जिसका उदेश्य वित्त व्यवस्था के दोष ठीक करके उसे पतदी पर लाना होता है जो अंतत: अर्थव्यवस्था की एक आवश्यक प्रक्रिया है। लेकिन 8 नवंबर 2016 के दिन घोषित वह निर्णय विमुद्रीकरण नहीं था, सिर्फ एक नोटबंदी था। क्योंकि उसके उदेश्य आर्थिक कम राजनैतिक अधिक थे। उस दिन देश में परिचालन में रही वैध मुद्रा के 86% मूल्य के नोटों को अवैध घोषित कर दिया गया, देश की वैध मुद्रा के सबसे बड़े मूल्यवर्ग यानि 500 और 1000 रुपये के नोटों को गैर कानूनी करार दिया और चलन से बाहर कर दिया गया, विना किसी तरह योजना और तैयारी के। जिसका परिणाम हुआ देश के लोगों की विशेषकर गरीब आम जन को असहनीय तकलीफ़ें। छोटे व्यवसायियों, उद्यमियों और असंगठित एवं अनौपचारिक क्षेत्र की बर्बादी। लाखों छोटे कल कारखाने बंद हो गए जिनमें कार्यरत करोड़ों लोग बेरोजगार के गए । छोटे और परचून व्यापारियों के व्यवसाय बंद हो गए। लोगों को बैंकों और एटीएम के सामने कतारों में घंटों खड़े होना पड़ा और अंत में फिर खाली हाथ। उस दौरान इसे देखते हुए लोग मज़ाक मेँ एक दूसरे से कहते थे ‘निकला क्या’ (एटीएम से नोट)। कई लोग बिना इलाज मर गए, कुछ उन लाइनों के हवाले हो गए, कई विवाह टूट गए, विद्यार्थियों के दाखिले नहीं हो पाये। असंख्य तकलीफ़ें हुई इस देश के गरीब को। लेकिन देश के प्रधानमंत्री कहते रहे, गरीब को बलिदान करने के लिए, उस महायज्ञ में आहुति डालने के लिए, बहुत अच्छे के लिए तकलीफें सहन करने के लिए। इस देश के गरीब ने बहुत सहा अच्छे दिनों के आने के खातिर। वैसे भी गरीब के पास सहने के अतिरिक्त चारा भी कोई नहीं होता। दूसरी तरफ जैसा कि सदा होता आया है देश के धनाढ़य वर्ग, कालाधन वाले, व्यवस्था से जुड़े बहुत से लोगों के कमाने के दिन आए। सत्ता के करीब के लोगों तथा गैर कानूनी तरीके से धन जमाखोरों का तथाकथित कालाधन भी औने-पौने में सफ़ेद हो गया।
‘नोटबंदी’ के बताए गए कारणों में पहला ‘कालेधन’ को बाहर लाने के बारे में कुछ ही दिन पहले भारतीय रिज़र्व बैंक ने कहा है कि बन्द किए गए नोटों का 98-99% तो उसके पास वापस आ चुका है, शेष 1-2% वह भी बैंकों आदि के पास है। जिसका सीधा अर्थ हुआ कि तथाकथित ‘कालाधन’ सब सफ़ेद भी हो गया और अर्थव्यवस्था ko भरपाई न होने वाला नुकसान भी और लोगों को असंख्य तकलीफ़ें भी झेलनी पड़ी। दूसरा कारण ‘नकली मुद्रा’ का परिचालन, तब तो शोर था कि देश की अर्थव्यवस्था में परिचलित मुद्रा का 20-25% नकली मुद्रा है जिसका दोष दूसरे देश पर ही दिया जाता था। लेकिन ‘नोटबंदी’ के एक साल बाद भी सरकार और आरबीआई इस बात का खुलासा तक नहीं कर पाये कि असल में इस नकली मुद्रा की स्थिति क्या है? तब यह कितनी चलन में थी और आज कितनी है। इस समस्या पर चर्चा ही बंद है। तीसरा कारण बताया गया कि नोटबंदी से आतंकवाद को मिल रहा फंड बन्द हो जाएगा और देश को आतंकवाद से छुटकारा मिल जाएगा। लेकिन सरकार इस बात के भी कोई प्रमाण नहीं दे पाई कि आतंकी फंडिंग को कितना नियंत्रित किया गया है। असल में इस कदम के पीछे शुद्ध राजनैतिक कारण काम कर रहे थे। जिसका खुलासा बाद के समय मेँ कई सूत्रों ने किया। लेकिन जैसे आमतौर पर होता है, इस कदम को भी गरीबों के हित में क्रांति के रूप में पेश किया गया जिसकी फिर उस गरीब को ही भारी कीमत चुकानी पड़ी।
यहां एक बात का और ध्यान रखा जाना चाहिए कि अर्थशास्त्र में ‘कालाधन’ नाम से कोई नामावली नहीं है। धन कभी काला नहीं होता। हां! धन का प्रयोग अनौपचारिक हो सकता है। जिसके अन्दर करों की चोरी भी शामिल है। आज बिना कर दिये जो धन, धन कमाने या जमा करने के लिए प्रयुक्त होता है, उसे कालेधन का नाम देकर आम आदमी का भावनात्मक शोषण किया जाता है। यह धन टेक्स चोरी का और गैर कानूनी हो सकता है, लेकिन हर अर्थव्यवस्था में इसका अपना महत्व है जिसे नकारा नहीं जा सकता। सही में कहें तो यह धन वह धन होता है जो सरकार के शक्तिशाली और निरंकुश शिकंजे के अंदर नहीं होता, अपितु इसके बाहर अनौपचारिक रूप में अर्थवयवस्था का पोषण करता है।
‘नोटबंदी’ के बीच मेँ यदि कोई आर्थिक विचार था तो सिर्फ यह कि सरकार का मानना था कि इससे अधिकतर मुद्रा वापस आरबीआई नहीं आएगी और वह स्थिति सरकार के लिए एक जश्न मनाने की होगी और उसे वह युगांतरकारी कदम के रूप में अपनी उपलब्धि के रूप में गिना कर भविष्य में भी राजनैतिक लाभ उठा सकती है। लेकिन ऐसा नहीं होना था और ही हुआ। जब इस कार्य के स्थापित उद्देश्यों की पूर्ति दूर-2 तक न हो सकी तो सरकार ने इसके नए ‘गोलपोस्ट’ निर्धारित किए। जिसमें मुख्य हैं अधिक नये करदाताओं का पंजीकरण, जांच के अधीन केश, डिजिटल पेमेंट में वृद्धि आदि। इसी को लेकर देश को झांसे में रखा जा रहा है। इस तरह उस गरीब को फिर से ठगने का प्रयास किया जा रहा है जिसे लंबे समय के सुख के लिए ‘तनिक’ झेलने या सहन करने को कह कर ठगा गया था। उसकी भविष्य की खुशी के लिए उससे कुर्बानी मांगी गई थी।
2014 के लोकसभा चुनाव से पहले भी देश के गरीबों से वादा किया गया था कि विदेशों में पड़े कालेधन को देश में लाया जाएगा और 15-15 लाख रुपये उनके खाते में सीधे जमा होने थे। जिसके लिए जन धन के खाते खोले गए। उसके बाद खातों का आधार कार्ड से जोड़ने का कार्य शुरू हुआ। ताकि 15-15 लाख रुपए की रकम सीधे और आसानी से उनके खातों में डाली जा सके। लेकिन आज जब उस पर सवाल किए जाते हैं तो सरकार ही नहीं भाजपा के प्रवक्ता भी गुस्से में लाल पीले होकर जबाव देते हैं कि विदेशों के साथ संधियों के अधीन ही ऐसा हो सकता है। तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि चुनाव से पहले वादा करते हुए उन्हें यह ज्ञात नहीं था क्या? और भी जर्मनी सरीखे कई देश हैं जो सूचनाओं को सांझा करने को तैयार हैं लेकिन सरकार, मोदी साहब और महान वित्तमंत्री इस पर कोई कार्यवाही नहीं करते। आज भी उन (आम आदमी) के वे सब खाते जैसे खुले थे वैसे ही पड़े हुए हैं। बैंक कर्मचारी जरूर उसे अतिरिक्त कार्य के रूप में देखते हैं।
हां! इस बीच डिजिटलिकरण और अधिक सुरक्षा के नाम पर एक काम अवश्य हुआ है आधार नं. को हर चीज से जोड़कर देखने की बाध्यता जिसने गरीबों के लिए बहुत सी अतिरिक्त समस्याएं पैदा की हैं। देश में विधेयक पारित करके एक योजना चलाई गई अन्न सुरक्षा की, लेकिन उस के बाद तो पीडीएस के अंतर्गत मिलने वाला राशन का मिलना भी बन्द हो गया है। इस डिजिटलिकरण की दौड़ के चलते राशन न मिलने के कारण गरीबों को भूख से मरना पड़ रहा है। जिसका ताज़ा उदाहरण है छतीसगढ़ का है, जहां भूख से एक लड़की मर गई। बताया गया है कि उस लड़की के परिवार का राशन कार्ड आधार से जुड़ा भी नहीं था और डिजिटल भी नहीं हुआ था।
इस प्रकार के कार्यों को क्रांति का नाम देकर और युगांतरकारी निर्णय बता कर यूपी जैसे बड़े और महत्वपूर्ण प्रदेश के विधान सभा के चुनाव अच्छे से जीते गए। लोगों ने प्रधानमंत्री पर एक बार फिर विश्वास किया और उनके कथन को सही मान कर भाजपा को बड़े स्तर पर जिताया।
‘कालाधन विरोधी दिवस’ के नाम पर नोटबंदी की बर्सी मनाते हुए देश के योग्य वित्तमंत्री ने दावा किया है कि 8 नवंबर, 2016 के दिन के निर्णय को देश के इतिहास में महान क्षण के रूप में याद किया जाएगा और देश स्वच्छ, अधिक पारदर्शी और वित्त सुव्यवस्था की तरफ बढ़ा है। वित्त मंत्री साहब यह भी दावा करते हैं कि नोटबंदी से कई करोड़ का स्वैच्छिक करदान हुआ है और करोड़ों का स्वैच्छिक प्रकटीकरण हुआ है। यहां वित्त मंत्री को बता दिया जाये कि इस देश का हर व्यक्ति सिर्फ एक रुपया ही यदि प्रकट (डिस्क्लोज़) करे तो यह 130 करोड़ का आंकड़ा बन जाता है। इस मामले में यह भी बता दिया जाये कि इस से पहले भी एक बार ‘वलांटियरी डिस्क्लोशर स्कीम’ चली थी। उस योजना के अंतर्गत भी बहुत से प्रकटीकरण दहाइयों में थे। जैसे हाल के यूपी के किसानों के ऋण माफी के प्रकरणों में हुआ है कुछ के तो 10 रुपये माफ किए गए हैं। आज जब नोटबंदी पर सवाल सख्ती से उठाए जा रहे हैं और गुजरात चुनावों में यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन कर उभरा है तो प्रधानमंत्री, देश के महान वित्त मंत्री, केबिनेट के मंत्री, भाजपा के कार्यकर्ता और पूरी सरकारें नोटबंदी का बचाव करने उतरी हैं। हर तरह से इस बड़े घोटाले पर लीपा-पोती करने के प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन क्या ये लोग देश को फिर मूर्ख बनाने में सफल हो पायेंगे …?
नोटबंदी के उद्देश्य कितने साफ पाक हो सकते हैं, इस बात का प्रमाण तो भारतीय रिज़र्व बैंक, जो कि देश की वित्त व्यवस्था के लिए उत्तरदायी है, ने तब दे दिया था जब उसने नोटबंदी की घोषणा करने के निर्णय मेँ उसकी क्या भूमिका रही थी के बारे मेँ सूचनाएं संसदीय समिति के सामने, देश की आर्थिक सुरक्षा को खतरे के नाम पर रखने से मना कर दिया था।