लाहौल जैसे कठिन, दूरस्थ, शैव व बौद्ध क्षेत्र में सनातन धर्म का प्रचार-प्रसार एक बड़ा परिवर्तन माना जा सकता है। जिसे इस मत को मानने वाले ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ नाम देते हैं, इसी नाम से एक संस्था भी पंजीकृत है। लाहौल के इतिहास एवं संस्कृति के बारे में प्रामाणिक सामग्री, साक्ष्य एवं मत कमी है और किसी भी विषय में लिखने के लिए कुछ उपलब्ध साक्ष्यों पर निर्भर रहना पड़ता है, यह लेख घुशाल गांव के सनातन मतानुयायियों के द्वारा प्रमाणित है। इस लेख को लिखने के लिए लाहौल के ऐसे लोगों की मदद ली गई है जो या तो स्वयं उस अवसर के साक्षी थे या फिर उनके निकटतम संबंधियों ने उस आंदोलन में भाग लिया था। सम्पूर्ण लाहौल 19वीं सदी के पूर्वार्ध तक शैव मत और बुद्ध धर्म का अनुयायी था। 19वीं सदी के उतरार्ध बाद से उसके अंदर न सिर्फ धार्मिक अपितु आध्यात्मिक बदलाव भी आने शुरू हुए। क्योंकि उसी दौरान योरोपियन ईसाई धर्म प्रचारकों ने इस क्षेत्र में आना प्रारम्भ किया। मैं यहां सिर्फ शैव मत को मानने वालों के बारे में बात करना चाहूंगा। वैसे तो कम ज्यादा पूरी पट्टन घाटी शैव मत के प्रभाव में थी। लेकिन घुशाल जो लाहौल का सबसे बड़ा गांव था वह तो शैव मत का गढ़ था, लेकिन ध्यान दें कि बुद्ध धर्म मानने वाले इस गांव में भी रहते थे। बताया जाता है इस गांव में हर मौके पर पशु बलियां देने का रिवाज था। जो कई बार तो एक दिन में 60 की संख्या को भी पार कर जाता था। तमाम लोग इस से त्रस्त थे परंतु हल नहीं था। उस कठिन समय में एक युगांतरकारी घटना घटित हुई 1939 में इस गांव में एक आध्यात्मिक गुरु ने पदार्पण किया।
बात शुरू होती है 1938 से गांव घुशाल के कुछ ‘कुठ’ व्यापारियों या कृषकों के मुकदमों से। क्योंकि उस समय लाहौल में कोर्ट नहीं थे जो स्थिति कम-ज्यादा आज भी है। लाहौल के लिए न्यायिक कोर्ट कुल्लू में ही लगता था। उनके मुकदमों की तारीखें सर्दियों में लगी तो उन व्यापारियों को मजबूरन किराये पर मकान लेकर कुल्लू में रहना पड़ा। इसी दौरान घुशाल के एक निवासी शिव राम जो कि कटराईं में बस चुके थे, ने उनको एक सन्यासी के बारे में बताया। उसने उन्हें उस सन्यासी से मिलने और दीक्षा लेने की सलाह दी। यह भी बताया कि वे स्वामी कुल्लू कस्बे के करीब मनाली के रास्ते में एक गुफा में रहते हैं, जो आज के ‘गेमनपुल’ के किनारे पड़ती है। अब क्योंकि वे लोग शैव मत में आई पशु बलि जैसी कुरीतियों में तंग आ चुके थे और वे लोग तत्काल उस सन्यासी से मिलने के लिए तैयार हो गए और वे एक दिन स्वामी जी के दर्शन और दीक्षा के लिए गुफा में पहुंच गए। वहां पर उनके एकमात्र शिष्य और सहयोगी ने उन्हें बताया कि वे दूसरे दिन फूलों की एक-2 माला लेकर आयेँ और स्वामी जी के गले में पहनाएं और स्वामी जी जान जायेंगे कि वे दीक्षा लेने आए हैं।
दूसरे दिन वे लोग हाथों में मालाएं लेकर वहां पहुंच गये और स्वामी जी से मिले और दीक्षा ली फिर तो यह चलता रहा। इधर सर्दियां खत्म हो गई रोहतांग दर्रा खुल गया और घुशाल के व्यापारी वापस जाने की तैयारियां करने लगे तो उन्होंने स्वामी जी को लाहौल जाने की प्रार्थना की। वहीं दूसरी तरफ स्वामी के कुछ अनुयायी कुल्लू के नग्गर गांव में थे, वे स्वामी जी पर ज़ोर डाल रहे थे कि वे नग्गर आयेँ। अंत में स्वामी जी घुशाल जाने के लिए राजी हुए।
साल 1939 में स्वामी जी जिनका असल नाम जयवंत राव था और महाराष्ट्र के रहने वाले थे, सन्यास ग्रहण करने के बाद उन्होंने अपना नाम ओम ब्रह्म प्रकाश रख लिया था, लाहौल के सबसे बड़े, सबसे दबंग गांव घुशाल पहुंचे। लेकिन पहला वर्ष उन्होंने किसी भी अनुयायी या गांव वाले का आतिथ्य नहीं स्वीकारा बल्कि चंद्र और भागा नदियों के संगम पर रेत पर अपना ठिकाना जमाया। 1939 की पूरी गर्मियां उन्होंने वहीं बिताई और गांव के लोगों को आध्यात्मिक शिक्षाएं दी। जिसके कारण लगभग सारे गांव का नक्शा ही बदल गया। लोगों ने पुराने मंदिरों, गोम्पों को तोड़ दिया, बलि प्रथा बंद कर दी, अंध-विश्वासों, कर्मकांडों से दूर हटने लगे। उसके स्थान पर हवन कीर्तनों ने ली। जहां पहले पशु बलियां दी जाती थी वहां अब हवन होने लगे। एक क्रांतिकारी परिवर्तन। सर्दियों के प्रारम्भ में स्वामी जी फिर कुल्लू आ गए।
दूसरे साल स्वामी जी फिर लाहौल गए और इस बार फिर से गांव के लोगों और उनके अनुयायियों के आग्रह पर गांव के एक अनुयायी परिवार जिसका नाम ‘खम्फरे’ था, के घर में रहने को राजी हुए।
स्वामी जी के गांव में आने के बाद वहां के समाज व्यवस्था में बहुत बड़े बदलाव आये। उन बदलावों में एक था जन्माधारित जातीय विभेद व छूआ-छूत में जकड़े समाज की उन अभेद दीवारों में सफलता पूर्वक छेद करना। उसका एक बड़ा उदाहरण है जब गांव में सनातन धर्म के मंदिर का उद्घाटन या मंदिर में स्वामी जी की मूर्ति की स्थापना हुई तो उस अवसर पर भोज पर वहां के सवर्णों और अवर्णों ने एक साथ बैठकर भोजन किया। एक पंक्ति सवर्णों की लगाई गई उसके साथ-2 अवर्णों यानि अछूतों की भी पंक्ति लगाई गई। इस तरह लाहौल के इतिहास में पहली बार हुआ, सबने एक साथ बैठ कर भोजन किया। अन्यथा उच्च जाति के लोग घर के अंदर खाते थे तो अछूत लोगों का स्थान तो बाहर आंगन में होता था। यहां पर बुद्ध धर्म के नाम पर सामाजिक एवं आध्यात्मिक परिवर्तन पर गर्व करने वालों की बात करता हूं क्या वे भी इतना कर पाये? नहीं उन्होंने अपने को और अधिक संकुचित किया है। उनका तो 1878 के बाद अधिक हिन्दूकरण होता गया।
लाहौल के इतिहास में यह एक ऐसा सामाजिक, धार्मिक और आध्यात्मिक परिवर्तन था जैसा कि 500 वर्ष ईसा पूर्व देश आया था, जब गौतम ने बुद्ध धर्म और महावीर ने जैन धर्म कि स्थापना की थी। इस धार्मिक और आध्यात्मिक परिवर्तन जिसे कि स्वामी ओम ब्रह्म प्रकाश ने शुरू किया था को लाहौल का ज्ञात आध्यात्मिक गुरु कहना चाहिए और उसको आगे बढ़ाने में सबसे बड़ा योगदान देनेवाले लाला विशन दास भट्ट को सही अर्थों में लाहौल के आध्यात्मिक क्षेत्र में ज्ञात दखल देने वाला माना जाना चाहिए। यह परिवर्तन सिर्फ घुशाल गांव तक ही सीमित रहा हो ऐसा नहीं है बल्कि इसका असर तो पूरे लाहौल में हुआ। लाहौल के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन परिवर्तन की शुरुआत हुई।
बताया गया है कि घुशाल गांव में आज लगभग 100 परिवार हैं जिनमें 8-10 परिवार बौद्ध मताबली हैं शेष सभी सनातनी हैं। इस घटना का असर सिर्फ घुशाल गांव में नहीं पड़ा अपितु पूरे लाहौल घाटी में पड़ा है। इसलिए यदि लाहौल का आध्यात्मिक गुरु कोई हैं तो स्वामी ओम ब्रह्म प्रकाश उनमें एक हो सकता है।