‘पत्थल गढ़ी’, केंद्रीय भारत के आदिवासियों क्षेत्रों में प्रचलित एक पुरानी प्रथा है जिसमें आदिवासी लोग पत्थर या शिला को अंकित करके ज़मीन पर गाड़ते थे। यह शिलाएं गांव के ज़मीन व क्षेत्र की सीमा को दर्शाने के अतिरिक्त किसी विशेष अवसर या किसी महत्वपूर्ण कार्य को पूरा करने के उपलक्ष में खड़ा किया जाता है। जो न सिर्फ इस क्षेत्र के आदिवासियों में प्रचलित है अपितु देश के लगभग समस्त जनजातियों में प्रचलित है, लाहौल में इस प्रकार गाड़ी गई शिला को ‘धजा’ कहते हैं। वर्तमान में ‘पत्थल गढ़ी’ का प्रयोग आदिवासियों द्वारा संविधान व विधानों द्वारा प्रदत्त अधिकारों की जानकारी देने के लिए किया जा रहा है। लेकिन विशुद्ध आदिवासी अधिकारों की लड़ाई को भाजपा नेताओं द्वारा धार्मिक रंग दिया जा रहा है। इन क्षेत्रों में आदिवासियों के सशक्तिकरण के लिए क्या कुछ किया गया है यह इस बात से साबित हो जाता है कि छतीसगढ़ में आज जाकर ‘सोशल मैपिंग’ की जा रही है। “…..अभुझमाड़ (अपरिचित पहाड़), छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के 4000 वर्ग कि.मी. का क्षेत्र। यही वह क्षेत्र है जिसे प्रचारित किया जाता है, ‘माओवादी क्षेत्र’ के नाम से। पता चला है कि इस क्षेत्र की पहली दफा ‘मैपिंग’ हो रही है। यानि देश के आज़ाद होने के 70 वर्षों बाद पता लगाया जाएगा कि वहां कितने लोग रहते हैं, कितनी जमीन है, कितने गांव हैं? पहली बार वहां की ज़मीनों के मालिकाना हकों के बारे में रिकार्ड बनाया जाएगा। जिसे सरकार अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मान रही है। बहुतों को अजीब लग रहा होगा कि इस डिजिटल देश में आज भी ऐसे क्षेत्र और लोग हैं जिनके बारे में देश-प्रदेश के शासक कुछ नहीं जानते…? यद्यपि इस क्षेत्र की अमूल्य जमीनों को अपने-2 चहेतों और संबंधियों में बांटने में देश-प्रदेशों की समस्त सरकारों में होड़ लगी रही।” (अभुझमाड़’, आज़ादी के 70 सालों के बाद पहली बार ‘मेपिंग’-एक उपलब्धि..?, लाल चन्द ढिस्सा, sadprayas.com)।
हाल में पत्थल गढ़ी के मामले ने तब तूल पकड़ा जब छतीसगढ़ के जशपुर ज़िला के बचरांव गांव में एक पत्थर गड़ा हुआ पाया गया, जिसमें लिखा हुआ (अंकित) था- ‘‘न लोकसभा, न विधानसभा, सबसे ऊंची ग्राम सभा।“ जिसे आदिवासी लोग अपने अधिकारों की संविधान प्रदत गारंटी मानते हैं। दूसरी तरफ सत्तासीन भाजपा के नेता इसे मिशनरियों द्वारा आदिवासियों को गुमराह करने के रूप में देखते हैं। इस सबके पीछे भाजपा नेता दिलीप सिंह जूदेव का हाथ बताया जाता है, जो भाजपा के ‘घर वापसी’ कार्यक्रम के मुख्य नेता भी थे।
दिलीप सिंह जूदेव का बेटा प्रबल सिंह, जो भाजपा युवा विंग का राज्य उपाध्यक्ष के साथ-2 ज़िला पंचायत का उपाध्यक्ष भी है, ने 28 अप्रैल को ‘सदभावना रैली’ निकाली, रैली में हिन्दुत्ववादी नारे लगाये जा रहे थे। रैली में केंद्रीय मंत्री विष्णु देव साय ने भी हिस्सा लिया। छतीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह का कहना है कि ‘पत्थल गढ़ी’ में धर्म परिवर्तन करवाने वाली ताकतों का हाथ है। प्रबल सिंह का दावा है कि ईसाई मिश्नरी, हिन्दू आदिवासियों का धर्म परिवर्तन कर रहे हैं और इस उद्देश्य से उन्होंने पत्थल गढ़ी का मामला उठाया है। लेकिन उस क्षेत्र के इसाइयों का कहना है कि वह भले ही पत्थल गढ़ी के इस कांड के साथ न हों लेकिन अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति अपनी भूमिका सुनिश्चित करेंगे और इसमें गलत भी कुछ नहीं है। अब तो हालत यह हो गई है कि बचराओं गांव को ईसाई और गैर ईसाई आदिवासियों का एक दूसरे के क्षेत्र में आना जाना भी बहुत कम हो गया है।
यहां यह बताना अनावश्यक नहीं होगा कि आदिवासी का धर्म प्राकृतिक धर्म होता है। उसका किसी भी स्थापित और संगठित धर्म से कोई लेना-देना नहीं होता। आदिवासी तो प्रकृति पूजक होता है और उसका अपना धर्म और अपनी व्यवस्था व मान्यताएं होती हैं। तो प्रश्न है प्रबल सिंह को कौन सा हिन्दू आदिवासी मिल गया, वह भी धर्म परिवर्तन करके ईसाई बनने वाला। यह बात ‘अनुसूचित जनजातियों’ (एसटी) के मामले में तो ठीक हो सकता है लेकिन ‘जनजातियों’ या ‘आदिवासियों’ के मामले में किसी भी तरह सही नहीं हो सकता। इस पर आगे बढ्ने से पहले यह समझना भी बहुत जरूरी है कि आदिवासी (ट्राइब) और अनुसूचित जनजाति के बीच पर्याप्त अंतर है। जहां ‘जनजाति’ (ट्राइब) एक नृवैज्ञानिक अवधारणा है वहीं ‘अनुसूचित जनजाति’ (शिड्यूल्ड ट्राइब) संविधान द्वारा प्रदत प्रस्थिति है। इस लिए इस अन्तर को जानना आवश्यक है “….सबसे पहले जनजाति (ट्राइब) और अनुसूचित जनजाति (शिड्यूल्ड ट्राइब) के बारे में विचार करें। जनजाति एक नृवैज्ञानिक (एंथ्रोपोलॉजिकल) अवधारणा है जबकि अनुसूचित जनजाति एक संवैधानिक नामावली है। आदिम या आदिवासी अवधारणा को अंग्रेजी के ‘एबोरिजिन’ या ‘ट्राइब’ नामावली के हिंदी रूपांतर के अधिक निकट माना जा सकता है। अनुसूचित जनजाति एक संवैधानिक नामावली है जो उन सभी समूहों, समुदायों तथा समाजों के लिए प्रयुक्त होती है जो भारत के संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची में सम्मिलित हैं।” (संविधान के सामाजिक अन्याय, खण्ड-1)
प्रबल सिंह साहब का यह भी कहना है कि आदिवासियों ने बाहर के लोगों का वहां प्रवेश बन्द कर दिया है, जो गलत है और संविधान में प्रदत मूल अधिकारों का हनन है। उनका यह कहना कितना गलत है इस बात का प्रमाण 1970-80 के दशकों में संविधान की पांचवीं अनुसूची में आने वाले क्षेत्रों में चले आदिवासी आंदोलनों से लगाया जा सकता है। जिनके दबाव में केंद्र सरकार को इस समस्या के समाधान के लिए दलीप सिंह भूरिया की अध्यक्षता में ‘भूरिया कमेटी’ का गठन करना पड़ा। उस कमेटी की सिफ़ारिशों को आधार बना कर 1996 में संसद को एक अधिनियम, पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम-1996 (PESA) पारित करना पड़ा। इस विषय में ….. को जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय तथा टाटा समाज विज्ञान संस्थान, मुंबई द्वारा आयोजित सम्मेलन के बाद तैयार की गई रिपोर्ट के अंश प्रस्तुत हैं “…….उस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 1990 में देश में आदिवासियों की जनसंख्या कुल जनसंख्या का 7.5% थी लेकिन विस्थापन में उसका हिस्सा 40% था। जो एक रिपोर्ट के अनुसार आज क्रमश 8% और 55% है। यानि कि जनसंख्या में 0.5% की और विस्थापन में 15% की वृद्धि। यही है वह विकास जिसके सहारे आज देश की जनता विशेषकर गरीब, दलित, आदिवासी, मजदूर, अल्पसंख्यक और सीमांत लोगों के खून से बड़े-2 कारपोरेटरों और उद्योगपतियों की दौलत की प्यास बुझाई जा रही है।” (बड़ी कम्पनियों और उनके मुनाफे के बीच आते ये आदिवासी, लाल चन्द ढिस्सा, sadprayas.com)।
“……..यहां इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि अधिकतर आदिवासी (ट्राइबल नहीं) भूमि पर समुदाय का स्वामित्व होता है। जिसका आमतौर पर सरकार के पास न तो रिकॉर्ड है और न ही रखने की आवश्यकता समझी जाती है। अब भू-अधिग्रहण अधिनियम (जिसे भूमि पर जबरन कब्जा अधिनियम कहना उचित होगा) के अंतर्गत भूमि आदिवासियों से लेकर बड़ी-2 कम्पनियों को लगभग मुफ्त से दिया जाता है। उन आदिवासियों के नाम भूमि नहीं होने या भूमि के स्वामित्व अधिकार न होने के कारण उनको क्षतिपूर्ति या मुआवजा भी नहीं मिल पाता। यानि उन सीधे सादे गरीब वनवासियों (यह नाम आज की व्यवस्था चलाने वालों ने उन्हें दिया है) उनके आजीविका से बेदखल कर दिया जाता है, जिसके प्रति किसी का भी उत्तरदायित्व नहीं होता। यह पूरी की पूरी व्यवस्था जिन अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विकास और प्रगति के प्रति प्रतिबद्ध होने का दम भरती है। कंपनी के मालिकों के साथ मिलकर उन्हें ‘सलवा जुडूम’ के हवाले कर देते हैं। जिस पर सर्वोच्च न्यायालय यदि कुछ न बोलता तो पता नहीं अपने ही भाइयों द्वारा न जाने कितने लोग कत्ल करवा दिये जाते। इधर यदि बेचारे आदिवासियों की दशा पर तरस खाकर देश की सिविल सोसाइटी के लोग और बुद्धिजीवी लोग, उनकी मदद को आते हैं, उन्हें भी डराया धमकाया और उनके विरुद्ध पुलिस केस बनाए जाते हैं। यह है आदिवासियों के विकास का नमूना।” (बड़ी कम्पनियों और उनके मुनाफे के बीच आते ये आदिवासी, लाल चन्द ढिस्सा, sadprayas.com)।
उपरोक्त एक्ट (पीईएसए) के बारे बताया जाये कि अनुसूची 5 के अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों के लोगों के ज़मीन, प्राकृतिक संसाधनों (जल, जंगल, जमीन) और संस्कृति व रिवाजों की सुरक्षा के लिए कुछ विधान बने हैं, यह कानून उनमें एक है। जिसके तहत काफी कड़े प्रावधान किए गए हैं जिससे कि इन क्षेत्रों में भूमि का अधिग्रहण करना वहां के स्थानीय लोगों की सहमति के बिना न हो। पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार) अधिनियम, 1996 जिसमें इस प्रकार के प्रावधान किए गए हैं, जिससे कि अनुसूची पांच क्षेत्र की ज़मीन को बाहर के लोग न खरीद सकें और उस क्षेत्र के आदिवासी अपने ही क्षेत्र में अल्पमत में न बदल जायेँ। इस बात को पूरा करने के लिए उन क्षेत्रों के पंचायतों के तीनों स्तरों के अध्यक्षों के पद आदिवासियों (अनुसूचित जनजाति) के लोगों के लिए आरक्षित कर दिये गए हैं।
इस बारे में उपरोक्त एक्ट के कुछ प्रमुख तथा महत्वपूर्ण प्रावधानों का यहां दिया जाना आवश्यक लगता है:
“सेक्शन 4. संविधान के भाग 9 में अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी, किसी राज्य का विधान-मंडल, उक्त भाग के अधीन ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा, जो निम्नलिखित विशिष्टियों में से किसी से असंगत हो, अर्थात:-
क) पंचायतों पर कोई राज्य विधान जो बनाया जाए रूढ़िजन्य विधि, सामाजिक और धार्मिक पद्धतियों और सामुदायिक संपदाओं की परंपरागत प्रबंध पद्धतियों के अनुरूप होगा;
छ) परंतु यह और कि अध्यक्षों के सभी स्थान सभी स्तरों पर अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित होंगे;
झ) ग्राम सभा या समुचित स्तर पर पंचायतों से विकास परियोजनाओं के लिए अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अर्जन करने से पूर्व और अनुसूचित क्षेत्रों में ऐसी परियोजनाओं द्वारा प्रभावित व्यक्तियों को पुनर्व्यस्थापित या पुनर्वास करने से पूर्व परामर्श किया जाएगा, अनुसूचित क्षेत्रों में परियोजनाओं की वास्तविक योजना और उनका कार्यान्वयन राज्य स्तर पर समन्वित किया जाएगा।”…..(डोल उठा हिमालय भी, डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा, सहयोग पुस्तक कुटीर, नई दिल्ली)। इसी पुस्तक के आवरण पृष्ठ पर बड़े-2 अक्षरों में लिखा हुआ है “सबसे ऊंची है ग्राम सभा”।
