अस्तित्व के लिए किये जाने वाले संघर्ष के एक अभिन्न अंग के रूप की जाने वाली लाहौल से कुल्लू की यात्रा का वृतांत पहले दे चुका हूं, यहां कुल्लू से लाहौल वापसी की बात करता हूं। वह यात्रा, यात्रा नहीं एक जंग होती थी। अक्तूबर-नवम्बर के महीनो में अस्तित्व रक्षा के लिए कुल्लू पहुंच कर, पेट पालने का संघर्ष शुरू हो जाता था। जाहिर है काम शारीरिक श्रम का ही होता था। उसमें पुरुषों का काम आम तौर पर दरिया-ए-ब्यास के किनारे पत्थर तोड़ना और उनको उनकी मंज़िल तक पीठ पर ढ़ोना था। काम साधारणत: ठेके पर होता था और ठेके दो तरह से तय होते थे। एक को कहते थे ‘सैंकड़ा’ और दूसरा तरीका था ‘चट्ठा’। पहले में मजदूरी प्रति सैंकड़े की दर तथा दूसरे में ‘चट्ठा’ यानि पत्थरों के विशेष माप व ढंग से बने ढेर के हिसाब से होता था। कभी-2 दिहाड़ीदार मजदूरी भी करते थे। लेकिन महिलाएं आमतौर पर दिहाड़ीदार मजदूरी करती थी, जिसमें पत्थर ढोना, मिस्त्रियों के साथ कुली का काम आदि। सर्दियों में बारिश अधिक होने तथा अन्य कारणों से रोजगार अनियमित था, कभी मिलता था तो कभी नहीं। इसलिए कहें कि पेट भरने का काम भर हो जाता तो गनीमत था।
इस प्रकार का संघर्ष अक्तूबर-नवंबर से लेकर फरवरी के माह तक निरन्तर चलता था। फिर शुरू हो जाती थी लाहौल वापसी की तैयारियां। ‘कुंस’ या फागली बीती नहीं कि युवा एवं समर्थ पुरुषों का लाहौल जाने का सिलसिला शुरू हो जाता था। क्योंकि मार्च-अप्रैल के महीनों में लाहौल में बिजाई शुरू हो जाती थी। नौजवान किस्म के लोग अपने परिवार के सदस्यों जिनमें महिलाएं, वृद्ध तथा बच्चे शामिल थे, को पीछे कुल्लू में छोड़ कर लाहौल के लिए चले जाते थे और रोहतांग के भारी जोखिम को उठाते हुए लाहौल की तरफ रवाना होते थे। उनमें से कुछ भाग्यशाली तो सकुशल लाहौल अपने घरों तक पहुंच जाते थे लेकिन जो अधिक भाग्यशाली नहीं होते थे, वे रोहतांग में ठंड और बर्फ की बलि चढ़ जाते थे। हर वर्ष दर्जनों लोगों की बलि ले लेता था दर्रा-ए-रोहतांग और प्रकृति की शक्ति, जिसे आज लगभग जीत लिया गया है।
नौजवान लोग लाहौल में बिजाई के काम से निपट कर फिर अप्रैल माह में कुल्लू की तरफ निकल पड़ते थे ताकि अपने परिवार के शेष सदस्यों को लाहौल अपने घर ले जाएं। उधर कुल्लू में बच्चों के स्कूल के परिणाम भी आ चुके होते थे, लेकिन उन्होंने अगली कक्षा में प्रवेश नहीं लिया होता था, जाने के लिए एकदम तैयार होते थे। 28 अप्रैल को कुल्लू में ‘पीपल जातर’ का मेला लगता था, जिसे आज ‘स्प्रिंग फेस्टीवल’ के नाम से जाना जाता हैं। 29 अप्रैल को लगभग तमाम परिवार लाहौल जाने को तैयार हो जाते थे। तब कुल्लू से मनाली तक बस चलती थी। दिन में दो-चार बार। छोटी-2 पीले से रंग की बसें जिन्हें ‘डाक गड्डि’ कहते थे। उसके अतिरिक्त भी सूद साहब की बसें जो शायद सहकारी समिति की थी भी चलती थी। जिनके नंबर मुझे आज भी याद हैं, 7016, 7017, 7018 आदि-2। लाहौल जाने वाले हर परिवार का एक-2 सदस्य बस में मनाली तक जाता था और सब सामान उसी के साथ भेज दिया जाता था। शेष लोग पीछे से पैदल निकलते थे, किराया बचाते हुए।
वापसी की यात्रा छ: दिनों में समाप्त होती थी। क्योंकि वापसी पर कहीं विश्राम करने या नहाने धोने के लिए नहीं रुका जाता था। लाहौल से कुल्लू आते हुए बशिष्ट या कलाथ रुक कर गरम पनि में नहाते थे। गरम पानी में इस प्रकार नहाने को हमारी भाषा (चिनलभाशे) में ‘पाइन दुक्सी करबा’ कहते हैं, जिसका अर्थ होता है ‘पानी का सेक’ देना यह एक मान्य इलाज माना जाता है। बताया जाता है कि इस तरह से कई बीमारियों का इलाज होता है। जिसमें ‘छुसेर’ की बीमारी भी शामिल हैं। ‘छुसेर’ भोटी भाषा का शब्द है जिनका अर्थ है पानी का दर्द।
पहले दिन पूरा समूह कुल्लू से चलता था और ‘जेंइडि’ आज के पतलीकुहल में रात काटता था। क्योंकि यह स्थान कुल्लू और मनाली के मध्य में लगभग बराबर की दूरी पर स्थित है और लकड़ी, पानी और रुकने के लिए सुविधाजनक भी होता था।
दूसरे दिन सुबह जल्दी उठकर चल देते थे और कलाथ जाकर सुबह का खाना बनाकर खाते थे और रात को मनाली या तो सराय में या ‘गङटुर हाटि’ (गंगदू की हट्टी) या फिर किसी बड़े पेड़ के नीचे डेरा जमा लेते थे।
तीसरे दिन मनाली से चलते थे रास्ते में कुडुंग में खाना खाकर रात के लिए राहला में रोहतांग की शुरुआती चढ़ाई पर बनी गुफाओं की शरण लेते थे। यहां से क्योंकि रोहतांग की शुरुआत भी होती थी इसलिए ठंड भी बढ़ जाती थी। इसलिए गुफाओं की शरण लेना भी अनिवार्य हो जाता था। वे गुफ़ाएं, जिन्हें हमारी बोली में ‘कुढ़’ कहते हैं, कई वर्ग की थी और उसी आधार पर उनके नाम दिए गए थे। पहली ‘कुढ़’ (गुफा) का नाम था ‘गुनफुग’ भोटी शब्द, जिसका अर्थ था सर्दियों की गुफा, जिसका सीधा अर्थ था ऐसी गुफा जिसमें सर्दियों में भी रहा जा सकता था। उस गुफा की बनावट ही ऐसी थी कि वह काफी गर्म किस्म की थी यानि रोहतांग की ठंडी हवाओं का असर बहुत कम था। वह उस रास्ते की सबसे सुरक्षित व सुविधाजनक गुफा होती थी। यहां रुकने का प्रमाण आज भी मेरे दाएं घुटने पर जख्म के निशान के रूप में विद्यमान है। घटना तब की है जब एक बार मैं अपने समूह के साथ लाहौल जा रहा था और हमारे समूह ने यहां पड़ाव डाला हुआ था। मैं अपने साथियों के साथ खेलते हुए गिर गया था, मेरे घुटने पर काफी गहरी चोट लगी थी और खून काफी निकला था। दूसरे दिन लम्बी यात्रा थी, उपचार के नाम पर खून निकलने को रोकने के लिए कपड़ा जला कर उसकी राख चोट पर डाल कर बांध दिया गया था। गुफा के नजदीक ही पत्थरों का एक चबूतरा बना होता था जिसके एक कौने पर एक बिल था। बताया जाता था कि इस बिल से ‘नाग देवता’ बाहर आते थे और चढ़ाये गए दूध आदि का सेवेन करते थे। उस स्थान को ‘नागो ड्वार’ के नाम से जाना जाता था। दूसरी गुफा जिसे नाम दिया गया था ‘पाइंर कुढ़’ यानि पानी वाली गुफा, उस गुफा में पीने का पानी निकट ही पड़ता था। तीसरी गुफा जो कि ब्यास नाले के किनारे थी और जिसे नाम दिया गया था ‘रहङफुग’ यानि कि घोड़ों की गुफा शायद घोड़ों को इसमें रखा जाता होगा। यह बहुत बड़ी गुफा है और वर्तमान की मढ़ी के ठीक नीचे उतराई में ब्यास नाले के ऊपर पड़ती है और आज लाहौल के रास्ते में ‘सात मोड़ों’ से दिखाई पड़ती है। बताया जाता है कि इस गुफा में लोगों को कुछ हथियार आदि भी मिले हैं, अनुमान लगाया जाता है कि ‘आंग्लो-सिख’ युद्ध में सिख सैनिकों ने इसे प्रयोग किया था। गुफा के सामने ब्यास नाले के दूसरी तरफ एक बड़ी सी चट्टान, जो आज भी खड़ी है जिसका आकार उस समय के लाहौल में पानी ढोने के लकड़ी के वर्तन ‘छुज़ोम’ सा है। जिसे ‘भिन्एर छुजोम’ कहते थे। बता दिया जाये कि पश्चिमी हिमालय क्षेत्र हर अजीबो गरीब चीजों को पांडवों के साथ जोड़ कर देखने का रिवाज़ रहा है।
तीसरे दिन का यह पड़ाव बहुत महत्वपूर्ण होता था। क्योंकि अगले दिन इस यात्रा का सबसे कठिन और चुनौतीपूर्ण चरण शुरू होता था, रोहतांग दर्रा पार करना। अब यहां अन्य अवरोधों के अतिरिक्त एक मुख्य अवरोध था मौसम। मौसम यदि खराब हो जाये तो इन गुफाओं में कई-2 दिन रुकना पड़ जाता था। जिसका परिणाम सदा ही बुरा होता था, मनाली से सीमित मात्रा में खाने पीने के सामान को लेकर चले हुए होते थे ऐसे में यदि मौसम खराब हो जाये तो खाद्य पदार्थ की कमी हो जाती थी। यद्यपि यदि अधिक दिन यहां फंस गए तो यहां पर खाने की वस्तुओं की राशनिंग की जाती थी। खाने में खाना कम होता था पीना अधिक। यानि खाने में पानी अधिक डाला जाता था। फिर जब मौसम साफ होता था तो समूह के ‘मुसाफुरों’ (युवा एवं समर्थ) लोगों को मनाली भेजा जाता था और वे वहां से खाने की सामग्री लेकर शाम तक वापस पहुंच जाते थे।
चौथे दिन सुबह-2 ही रोहतांग की चढ़ाई चढ़ना शुरू कर दिया जाता था। हर समर्थ वयस्क की पीठ पर ‘किल्टे’ (बांस से बने) होते थे। महिलाओं के ‘किल्टे’ छोटे आकार तथा पुरुषों के बड़े आकार के होते थे। उन ‘किल्टों’ में रास्ते में खाने पीने का सामान, बिस्तर, कपड़े, बर्तन के अतिरिक्त कुल्लू से ले जाये गये उपहार जिसे ‘कोशड़ि’ कहते थे/हैं आदि होते थे। मर्दों के बड़े-2 किल्टों के अंदर उनके छोटे बच्चे भी डाले जाते थे। ताकि उन्हें ठंड न लग जाये। समूह जैसे-2 आगे बढ़ता जाता था, थकान और प्राकृतिक शक्तियों के प्रकोप से बचने के उद्देश्य से ‘जय माता’ और ‘राजा घेपन की जय’ के जयकारें लगाने की आवाजें अधिक तेज व बुलंद होती जाती थी और यह क्रम रोहतांग दर्रा के शिखर तक लगातार चलता था। दादा जी बताते थे कि रोहतांग दर्रा (कुएर धार) में सिर्फ ‘राजा घेपन’ के या माता के जयकारे लगाए जाते हैं। जैसे कि मणिमहेश के रास्ते में सिर्फ शिव शंकर के ही जयकारे लगाये जाते थे। वह एक शिष्टाचार था या कि कोई राजनैतिक प्रभुत्व का मर्यादा प्रमाण ? रोहतांग के शिखर पर पहुंचने पर सबसे पहला स्थान आता है ‘घेपुनेर ठेल’ यहां से घेपन देवता को नमन किया जाता था। रोहतांग दर्रे के दूसरे किनारे ‘हरचा गड़ु’ पर पहुंच कर दिन का खाना खाया जाता था यहां से दर्रे की उतराई आरंभ हो जाती थी। ‘हरचा गड़ु’ का रूट सर्दियों में प्रयोग किया जाता था/है। यहां पहुंचने के बाद लोग चैन की सांस लेते थे। हरचा गड़ु’ ‘थेंबेचे’ वर्तमान का ‘राक्शिढांक’ और डोहरनी मोड़ के बीच में स्थित है और रोहतांग टॉप पर एक संकरे द्वार या गली के रूप में खुलता है। सर्दियों का यह सबसे छोटा, सुगम एवं सुरक्षित रास्ता माना जाता है। फरवरी-मार्च के महीनो में रोहतांग पार करने वाले इसी रास्ते से सीधे चंद्रा नदी के ऊपर पहुंचते हैं। उस समय लाहौल में बर्फ बहुत पड़ती थी जिसके कारण नदी का पानी जम जाता था और लोग दरिया के ऊपर से चलते थे, यह सिलसिला कम-अधिक ‘सङ्म’ (संगम, सुमदों) तक चलता था। इस रास्ते को आज पर्वतारोहण के बचाव दल के लोग प्रयोग कर रहे हैं। गर्मियों का पैदल रूट वर्तमान कोकसर से सीधा राक्शिढांक निकलता था। हम रात होते-2 ‘ग्रम्फुक’ आज के कोकसर पहुंच जाते थे। तब वहां कुछ ही घर होते थे, उन घरों में रात को शरण लेनी होती थी। इसलिए उनसे खरीद कर पुरुष ‘चक्थि’ (नशीला पेय) पीते थे। इससे मालिक मकान की कुछ आय हो जाती थी तो मुसाफिरों को शरणस्थल की प्राप्ति और रात कुछ बचा हुआ खाकर गुजार दी जाती थी। दूसरे दिन यदि मौसम साफ हुआ तो वहां से चल देते थे। लेकिन आमतौर पर इतने भाग्यशाली नहीं होते थे। बर्फबारी होने पर वहीं रुकना होता था और वह एक बहुत ही तकलीफ देह स्थिति होती थी। दशा कितनी खराब होती थी उसका अनुमान इस घटना से लगाया जा सकता है कि एक बार तो मेरी एक रिश्तेदार महिला ने खुले आसमान के नीचे, बर्फबारी के बीच में एक बच्चे को जन्म दिया था। बच्चा जो आज भी एक स्वस्थ युवक है, जबकि हमारी रिश्तेदार महिला उसके कई सालों बाद अप्राकृतिक मौत से मर गई। इस प्रकार की कठिन परिस्थितियों में जीवन संघर्ष चलता था।
पांचवें दिन सुबह बिना कुछ खाये-पीये जल्दी चल पड़ते थे। हां! यहां से एक अन्य समस्या शुरू हो जाती थी और वह थी ताज़ी सफ़ेद बर्फ का आँखों में लगना, जिसे हमारी बोली में ‘हिंवाखुर’ कहते हैं, जिसमें आँखों में अत्यधिक जलन होती थी और आँखों से लगातार पानी बहता था। इसका कारण था रोहतांग में बिना चश्मे के नंगी आँखों से चलना। अब हम रंगीन चश्मे तो खरीद नहीं सकते थे। हां! कुछ जुगाडु लोग पारदर्शी रंगीन कागज से कम-अधिक काम चला लेते थे। किसी तरह गिरते-पड़ते, रोते-चीखते चलना ही होता था। उस दिन सुबह का खाना ‘स्रस्रेन’ (शाशिन), घेपन के गांव और ‘ख्गलिङ’ (सिस्सू) के बीच के नाले जिसे हमारी बोली में ‘गुधुमगड़’ कहते हैं, जहां हिमाचल प्रदेश बिजली बोर्ड का एक परित्यक्त बिजली घर है, में शाशिन वाले किनारे में आकर बनाते थे। यहां पर लोग पहली बार मसूर की दाल और चावल का आनंद लेते थे। रात को ‘तिहनन’ (गोंधला) पहुंचते थे और गढ़ के करीब में डेरा डालते थे।
छटे दिन गोंधला से चलते थे और दालंग मैदान होते हुए एक चढ़ाई और चढ़ते थे। जिसे ‘ग्रङ्ओ’ कहते थे। दालंग गांव के अंतिम छोर पर जहां से एक नये क्षेत्र का आरम्भ होता है, पर मिट्टी का एक बड़ा सा ढेर है जिसे ‘भिन्एर थोर्चा’ कहते थे। दालंग मैदान के अंत से चढ़ाई शुरू होती थी, जहां आज के दिन एक स्टोन क्रशर लगा हुआ है और जो दूसरी तरफ ‘छुरपक’ जाकर उतरा जाता था। सर्दियों में चन्द्रा नदी का पानी जम जाता था इसलिए उस समय लोग दरिया के ऊपर से चलते थे। इस क्षेत्र को ‘सिक्तिबाली’ कहते थे। आज के दिन इस प्रकार के पुराने स्थानों के नाम या तो बदल दिए गए हैं या चलन से बाहर हो गए हैं। इस रास्ते में पहली बार लाहौल के एक जंगली साग ‘प्रेउ-एर शाग’ इकट्ठा किया जाता था और फिर उसे ले जाकर तांदी गांव के ऊपर ‘योहन’ यानि पानी के पारम्परिक टैंक के पास सुबह का खाना बनाया जाता था और ‘प्रेउ’ के साग का स्वाद लिया जाता था। अब आगे का क्षेत्र अपना क्षेत्र होता था। जहां अपने लोग, रिश्तेदार आदि मिलते थे। लेकिन रास्ते में किसी के घर नहीं रुका जाता था और सीधा अपने घर जाहलमा। आराम और संतुष्टि की अदभुत स्थिति। रात ‘शागुण’ और आवाभगत में कट जाती थी और थके हारे चैन की सांस लेकर अच्छे से सो जाते थे।
सुबह से बड़ों की औपचारिकताएं आरंभ हो जाती थी। रिश्तेदार और गांव वाले भी ‘भूडियारू’ व ‘कुएर घ्राख’ से कई तरह की उम्मीदें रखते थे तो कुल्लू से गए लोग भी अपने कुल्लू से आए होने का एहसास करवाने के लिए उनमें उपहार आदि बांटते थे, जो वे बड़ी कठिनाई से सारी सर्दियों में अपना पेट बचाए रुपयों से खरीदे तथा पीठ पर ढोकर लाये गये होते थे। उन उपहारों को ‘कोशडि’ कहते थे, उसमें घर के लोगों के लिए कपड़े जूते आदि तथा अन्य रिश्तेदारों के लिए नहाने के साबुन, मिठाई (इलाइची दाना आदि) गरी, तम्बाकू (गुड़ाकू जो कि गुड़ मिलाकर तथा ‘फीका’ बिना गुड़ बना होता था) के बनाया जाता था, बांटते थे। इस बहाने रिश्तेदारों और गांव वालों के मेहमान बनते थे।
उधर हम लोगों को एक आध दिन के आराम के बाद स्कूल में दाखिल करवा दिया जाता था। अब हम लोग कुल्लू से गए होते थे तो हमारी शान कुछ अलग सी होती थी। कक्षा के सब साथी हमें उत्सुकता से देखते थे और कुल्लू की बातें पूछते थे। हमारी स्थिति विशिष्टों की होती थी। उसके अपने कारण भी थे, एक तो हम नए-2 कपड़े आदि पहने होते थे। उसके अतिरिक्त कुल्लू से अपने साथ स्लेट पर लिखने के लिए स्लेटी यानि मट्टी की पेंसिल और तख्ती पर लिखने के लिए कलम आदि लिये होते थे। कलम का तो हम व्यापार भी करते थे। उस सबके अतिरिक्त हमारे पास नई-2 पुस्तकें होती थी। विशेष कर सफलता की कुंजी भी हमारे पास होती थी। जिसकी मदद से हम हर प्रश्न का उत्तर निकाल लेते थे। इसलिए हमारी पूछ होती थी।
यहां कुछ स्थानो के नामों के बारे बताना आवश्यक लगता है जिनको आज भुला दिया गया है या उन नामो से नहीं जाना जाता बल्कि नये नाम दिये गये हैं। उनमें पहला स्थान नाम है आज का ‘ग्रम्फुक’ जो कोकसर गांव ठीक सामने चंद्रा नदी के पार है तब उस स्थान को ‘शिबरहकी’ कहते थे। आज का कोकसर जिसे तब ‘ग्रम्फुक’ के नाम से जानते थे, कुल्लू और लाहौल आने जाने वालों का शरणस्थल था। ग्रम्फुक से आगे (लाहौल की तरफ) जाने पर एक स्थान आता था, जिसे ‘चिगाबे’ कहते थे। लाहौल के पट्टन घाटी की बोली में इस शब्द का अर्थ है काठीनुमा बड़ा पत्थर। ‘चिगा’ यानि घोड़े की काठी और ‘बे’ का मतलब बड़ा पत्थर। इस स्थान पर सड़क से नीचे समतल जगह पर एक बड़ा पत्थर था जिसे देखने पर लगता था जैसे घोड़े की काठी को उल्टा करके रखा गया हो। उस पत्थर की बनावट ऐसी थी कि उसके दोनों तरफ आश्रय लिया जा सकता था। उसके दोनों किनारे कोकसर और उसकी विपरीत दिशा में काफी बढ़े हुए थे। उस पत्थर के बारे में एक कहानी प्रचलित थी कि एक बार एक व्यक्ति लाहौल से अपने वृद्ध पिता (जो कुल्लू में था) को लेने के लिए चला। उधर उसके पिता जी भी लाहौल के लिए निकल चुके थे। बीच में मौसम खराब हो गया और उन दोनों ने उस पत्थर के विपरीत दिशा में शरण ली। अत्यधिक बर्फबारी हुई और दोनों की मौत वहां उसी पत्थर के अगल-बगल में हो गई। इसी के चलते वह स्थान प्रसिद्ध हुआ। उसके थोड़े आगे चलने पर एक स्थान आता है जिसे तब ‘गोचाप्रङ’ कहते थे। इस शब्द का अर्थ चट्टान के नीचे होता है। नाम शायद इसलिए पड़ा क्योंकि वहां पर रास्ता चट्टान के नीचे से ‘चन्द्रा’ नदी से ठीक लगता हुआ था। आज इस स्थान पर चट्टान को काट कर रास्ता बनाया गया है और यह स्थान आज के ‘फुमण नाला’ के पास है। इसी स्थान पर लाहौल में पहली बार मैंने जीप देखी थी। मेरी अप्रकाशित पुस्तक ‘मेरी जीवन यात्रा’ के एक अध्याय से।
लाल चन्द ढिस्सा
(सामाजिक कार्यकर्त्ता)