हाहाकार मच गया था
कुल्लू तबाह हो गया
लेकिन
‘ब्यास’ के
शांत होने के
दूसरी सुबह
चार बजे
रात रहते
उस स्थान पर
जहां कल के
उस ताण्डव के
अवशेष
मरे हुए पेड़
मकानों के टूटे
खिड़की-दरवाजे कुछ
लोहे के गेट
लाशों की तरह
बिखरे पड़े थे,
दीवाली की तरह
रोशनियां चमक रही थी,
‘पावर चैन’ की
काटने की तेज आवाजें,
यह मेरा, वह तेरा
अवशेषों के बंटवारे का
शोर था
किसी ‘मेले’ की तरह।
मैं, इस पार से
कल के अपने
उस कथन को
सच होते
देख-सुन रहा था
कि मानव की
जीत
सुनिश्चित है
क्योंकि प्रकृति
खोती जा रही है
और मानव
पाता जा रहा है
मनुष्य प्रकृति के
अनगिनत रहस्य
खोलता गया है
लेकिन प्रकृति उसे
न जान सकी है
मानव ढलता गया
प्रकृति न ढल पाई है
यही है
मानव उदविकास का इतिहास
‘उद्विकास’ और ‘निर्माण’ का
स्पष्ट अंतर भी
यही है।
संयोग से
यह, वही जगह है
जहां पर
एक घुमंतू
गुजर परिवार
अपने पशुओं सहित
हर साल , दो बार
आकर
एक दिन रुकता है
और
आगे बढ़ जाता है
ज़िंदगी की तरफ
सतत, निरन्तर, शाश्वत
एक प्रक्रिया।