घर: my-home-good-or-bad-as-it-may-be-its-mother-our-own-mother

संवेदनाएं, भावनाएं, एहसास मनुष्य को अन्य जीवों से अलग बनाते हैं। मनुष्य के लिए शारीरिक अस्तित्व के साथ ही सामाजिक अस्तित्व भी महत्वपूर्ण होता है। उसकी स्वाभाविक इच्छा होती है कि समाज में उसका एक सम्मानजनक स्थान हो। वह एक सम्मान जनक जीवन की कामना भी करता है। वैसे भी एक सम्मानजनक प्रस्थिति या मानवाधिकार मानव अस्तित्व का महत्वपूर्ण हिस्सा है।

मानव जीवन की दो आधारभूत आवश्यकताएं हैं। पहली आर्थिक स्थिति और दूसरी सामाजिक प्रस्थिति। आदमी जिस भी जगह पर पैदा होता है उस स्थान से उसका भावनात्मक जुड़ाव भी स्वाभाविक तौर पर होता है। अजीब सा अटूट आकर्षण रहता है, अपनी जड़ों के प्रति। लेकिन बहुत बार उसे उस स्थान को छोड़ कर किसी अजनबी जगह जाकर रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

इस आप्रवास के लिए उसके सामने, जीवन कुछ परिस्थितियां उत्पन्न करता है। किसी व्यक्ति को किसी स्थान विशेष से पलायन कर दूसरी जगह बस जाने के लिए मजबूर करने वाले कारण वही होते हैं जो पहले वाले स्थान पर उसे नहीं मिल पाते। किसी आदमी को कहीं स्थापित होने व टिके रहने के लिए दो अनिवार्य सुविधाओं में से एक तो मिलनी ही चाहिए। या तो उसके आर्थिक साधन इतने समुचित हों कि वह स्वतंत्रता से जीवन जी सके या फिर समाज में उसका सम्मानजनक स्थान हो। जिस व्यक्ति का स्थान विशेष में न तो जीवन यापन के साधन उपलब्ध हो और न ही समाज में सम्मान हो तो वह जगह उसके लिए जेल बन जाता है।

कुछ लोग तो हालातों से समझौता कर लेते हैं और अपने को नियति के हवाले कर जहां, जैसे पैदा होते हैं, वहीं, वैसे ही मर भी जाते हैं। लेकिन ऐसे लोग जिनमें थोड़ी सी भी उद्यमिता या स्वाभिमान विद्यमान होता है, वे उस जगह को छोड़ कहीं और अच्छी संभावनाओं को तलाशते हैं। यद्यपि नई जगह में स्थापित हो पाना या नये माहौल का अभ्यस्त हो जाना भी कम कठिन नहीं होता। नई जगह के नये वातावरण, नए लोग, नई व्यवस्थाएं उसे सदा ही अपरिचित बनाये रखते हैं। लेकिन उसकी बेबसियां उसे अपने अस्तित्व को तलाशने, बनाने और बनाये रखने में इतना व्यस्त कर देती हैं कि वह उलझ कर रह जाता है। ।

यह कहानी सिर्फ मेरी हो, ऐसा भी नहीं बहुत से मेरे जैसे लोग देश विदेश बसने और परदेशी या मोन बन कर जीने की कशमकश में जीवन काट देते हैं और भविष्य की पीढ़ियों के लिए एक बड़ा सवाल छोड़ जाते हैं, अपने उद्गम की व्याख्या करने और स्पष्टीकरण देने के लिए।

लाहौल, गांव जाहलमा में अपने पुश्तैनी मकान की तस्वीर को सोशल मीडिया पर पाकर खुशी हुई। खुशी इस बात की कि कम से कम उसकी जर्जरता और लावारिस हाल के चलते और विज्ञान की सूचना क्रांति के बदौलत मेरे पूर्वजों के बनाये आशियाने और आज के स्मारक को सोशल मीडिया में जगह मिली।

वरना तो मैं क्या कर पाया था? अपने आप को भी सही से संभाल नहीं पाया। मेरे साथ के लोगों ने नौकरियां भी की और एक नहीं अनेक मकान बनाये, बाग-बगीचे लगाये, बैंक बेलेंस बनाये। आज वे लम्बी-2 कारों में चलते हैं और मैं न सुलझने वाली पहेलियों को सुलझाने और न खुलने वाली गांठों को खोलने में प्रयासरत हूं। कुछ न्याय-अन्याय, कुछ शोषण-पोषण, कुछ अस्तित्व की लड़ाइयों के जंजाल में उलझा हुआ।

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खैर! पता चला कि मेरे दादा जी द्वारा बनाये गये मकान पर वहां के स्कूल के प्रिंसिपल साहब की नज़र पड़ी और उन्होंने फोटो लेकर उसे सोशल मीडिया पर डाल दिया। इसी प्रकार यह तस्वीर मुझ तक भी पहुंच भी गई। एक बार तो आंखों में आंसू आ गए। क्योंकि मैं उस मकान, क्योंकि घर तो कह नहीं सकता, को नवम्बर, 2019 के बाद देख तक नहीं पाया था। उसके बाद 2020 का साल तो कोरोना के हवाले हो गया। इस बार श्रीमति जी को बेटा-बहू के साथ भेजा था। लेकिन वे उसे मेरी नज़र से शायद ही देख पाये होंगे ?

आज यह मकान बन चुका है, जो कभी घर हुआ करता था। मेरे दो दादा, मां-पिता, बुआ, हम चार भाई-बहन एक साथ रहा करते थे, उसमें। चुरू, भेड़ें, बकरियां, मुर्गियां और एक सफ़ेद-काली बिल्ली भी शामिल थे, हमारे परिवार में। बड़े दादा के दिशा निर्देश पर बनाया था घर जो 1960 में बनकर तैयार हो गया था। मेरे दो दादा थे लेकिन दादी एक ही, वह पुराने घर के समय ही चल बसी थी। मुझे याद है कि जब हमारे मकान का काम पूरा हुआ था, बाहर वाले दरवाजे, जिसे गेट कह सकते हैं, पर चढ़ाने के लिए कुंडा खरीदने के पैसे मैंने कंट्रीब्यूट किये थे। क्योंकि तब मुझे स्कूल में दाखिल हुये एक साल हो गया था और मुझे 6 रुपये सरकारी बजीफ़ा मिला था। 1960 का वह साल इस लिए भी याद रखा जा सकता है क्योंकि उस वर्ष मेरे गांव जहालमा के नये बने स्कूल में पंजाब सरकार ने टीएसी (जनजातीय सलाहकार समिति) की मीटिंग रखवाई थी। जिसमें तत्कालीन पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों को आना था। गांव में हेलीकाप्टर उतारने के लिए एक खेत को खाली करवाया गया था। लेकिन बाद में कैरों साहब तो नहीं उनके मंत्री मण्डल का कोई मंत्री अवश्य आया था। उस समारोह के मध्य भी मेरी बुआ जिसे मैं ददा (दीदी) कहा करता था, नये मक़ाम के फर्श को चिकना बनाने के लिए दरिया किनारे के गोल पत्थर को मिट्टी के फर्श पर रगड़ने के काम में व्यस्त रहती थी और कभी कभार स्कूल जा कर एक नज़र चल रहे कार्यक्रम पर डाल आती थी।    

वह मकान 1960 में बन कर तैयार हुआ था। लाहौल में मौसम समेत अन्य कई कारणों के चलते एक आम मकान बनने में दो सीज़न लग ही जाते हैं। उससे पहले मेरा घर गांव के पश्चिमी छोर पर था। जहां हम लोगों यानि चिनाल (दलित) समुदाय का निवास था। वह जगह बड़ी बर्फवारी के दौरान सुरक्षित नहीं थी। क्योंकि उसके ऊपर की जमीन की ढलान नाले के आकार की थी और बर्फवारी अधिक होने की सूरत में ग्लेशियर के हालात बन जाते थे। उन हालातों से दो चार होते हुये मैंने भी देखा था। एक बार बड़ी बर्फवारी के दौरान हम लोगों को गांव के उच्च जातीय लोगों के छिन्णे (बाहर का खुला कमरा) में शरण लेनी पड़ी थी। खैर! तब हमारी (दलित) कालोनी (आज की शब्दावली) गांव के पश्चिम में थी, आज वह पूर्व में ठीक नाले के ऊपर है। यहां जमीन खाली पड़ी थी जिस पर सरकारी स्कूल व वन विभाग के कार्यालय और क्वाटर आदि बने। उसी के साथ लगती जमीन में से दस-दस बिस्वा हमारे सात परिवारों को घर बनाने के लिए दी गई। जिस पर हमारे लोगों ने धीरे-2 अपने-2 मकान बनाये, उन्हीं में एक मेरा भी था।

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यह मकान जहालमा गांव के शुरुआत में नाला पार करते ही दांई तरफ मुख्य सड़क से कुछ दूरी पर मुख्य गांव से कुछ पहले पड़ता है। मकान से लगती हुई एक जीप जाने योग्य पक्की सड़क वन विभाग के विश्राम गृह तक जाती है। आज के विकास के युग में इस स्थान को अनओफिशियली ‘…कालोनी भी बोला जाता है। क्योंकि इस कालोनी में मेरे जाति के ग्यारह परिवार रहते हैं। मेरी अपनी भाषा में इस समुदाय को चिनाल’, अन्य चाहण और राजस्व रिकार्डों में कोहली चाहण आदि-आदि कहा जाता है। हां! मेरे उस घर, जो आज सिर्फ मिट्टी का एक पुराना जर्जर मकान भर रह गया है और लोगों के लिए अतीत का एक नमूना, का भी अपना एक इतिहास है, जैसा हर चीज का होता है।

     इस मकान, जो कभी एक घर था के साथ मेरी अनगिनत कड़बी-मीठी यादें जुड़ी हुई हैं। यही यादें हैं जो मुझे अपने होने का एहसास दिलाती हैं, अपने अस्तित्व के लिए लड़ने की इच्छा व शक्ति देती हैं। यही वह घर है जिसमें मैं अपने पूरे परिवार दादा(ओं), मां-बाप, बुआ, भाई-बहन, कुछ समय पत्नि(ओं) (मेरी दो शादियां हुई, एक से तलाक और दूसरी आज साथ है), 40-50 भेड़-बकरियां, चुरू आदि के साथ रहा हूं। इसी घर से मैंने स्कूल जाना शुरू किया था। यहीं पर भेड़ों के साथ रहते हुये पढ़ाई किया करता था। इसी घर में रहते हुये दादा जी के साथ गांव के पशु चराना सीखा। इसी घर में मैंने अपने, अपने परिवार और समुदाय पर होते अत्याचार और दबावों को झेला है। यही वह घर है जहां रहते हुये मुझे पता चला कि सामाजिक व जातीय विभेद क्या होता है ? इस व्यवस्था में मेरे लोगों को क्या और कितना समर्पण करना पड़ता है? कितना सहना और समझौते करने पड़ते हैं?

    इसी घर में रहते हुये मैंने अपने पूर्वजों के संस्कारों को आत्मसात किया, इसी घर में मेरे व्यक्तित्व की नींव पड़ी। इसी घर मैंने आत्मसम्मान के साथ जीना सीखा। यही वह घर है जहां मैंने अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध खड़े होना, लड़ना तथा प्रतिकार करना सीखा। पहली सीख तब मिली जब मैं सिर्फ 7 वर्ष का था। 1961 में मेरे दादा और उनके साथियों ने गांव के उच्च जातीय के अन्यायों का विरोध किया था। परिणाम स्वरूप हमारे सात परिवारों को गांव से अलग कर दिया गया था यानि सामाजिक बहिष्कार। कुछ समय बाद उन सात परिवारों में से पांच ने माफ़ियां मांग कर समझौता या समर्पण कर दिया। लेकिन दो परिवार जिनमें एक मेरा भी था, लगभग एक साल तक संघर्षरत रहे। परंतु अंत में टीएसी (जनजातीय सलाहकार परिषद) के तत्कालीन नामित दलित सदस्य स्व. श्री शिव दियाल की मध्यस्तता से मामला सुलझ पाया।

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  यह वह घर है जहां मेरे दो-2 विवाह हुये थे। मगर दोनों अरेंजड यानि घर वालों के दबाव में। पहला 1972 में जो लगभग 2 साल तक चलने के बाद तलाक में ख़त्म हुआ। दूसरा उसके दस साल बाद 1982 में, वह भी मेरी अनुपस्थिति में। क्योंकि तब मैं सिविल सेवा के दो साल के प्रोवेशन पर दिल्ली में था। वैसे भी हमारे समुदाय के रीति-रिवाज अनुसार दूल्हे की अनुपस्थिति में पूर्ण किया गया विवाह मान्य है (विवाह का विस्तृत विवरण मेरी अप्रकाशित आत्मकथा मेरी जीवन यात्रा में)।

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   इस घर में, इस घर के साथ, अपने प्रिय स्वर्गीय दादा के साथ किये गए कई वादे भी जुड़े हुये हैं। उन वादों में एक वादा था कि उनकी अर्जित सम्पति, जिस में थोड़ी सी जमीन और एक मकान है, को मैं बिना किसी तरह काट छांट व नुकसान के अपने उत्तराधिकारियों तक पहुंचाऊंगा। जिसके गवाह व निशान स्वरूप, घर के बड़े कमरे के उत्तर-पूर्वी दिशा पर खड़े लकड़ी के खंबे पर हथौड़े से निशान बनाया था, जो आज भी बरकरार है। क्योंकि मेरी सांस्कृतिक मान्यताओं में इसे कठ कहते हैं, जो बहुत बड़ी सौगंध मानी जाती है।

    इस लिए भी पीछे जियो के टावर लगाने के आकर्षक प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। उसी सम्पति के बंटवारे की मांग को भी टालता आ रहा हूं। लेकिन आज के इन दबावों के बीच कब तक बचा पाऊंगा, कह नहीं सकता ? क्योंकि विरोध करने की भी एक क्षमता, शक्ति और सामर्थ्य होती है।    

कुल्लू की भाषा, कुल्लुई में एक प्रसिद्ध कहावत है- लिपड़ि चिपड़ि अपणि मां, ढोग ढुंखर अपण: ग्रां। जिसका अर्थ है अच्छी बुरी जैसी भी हो अपनी मां तो अपनी मां ही होती है, उबड़ खाबड़ जैसा भी हो अपना गांव तो अपना गांव ही होता है। मुझे भी वही स्वाभाविक मानवीय प्रवृति चलाती है। यद्यपि मेरे पुश्तैनी गांव जाहलमा, जहां मेरा जन्म हुआ, मेरी नाल कटी, में अपना कहने के लिए बहुत कुछ नहीं है। गांव के लगभग 400 बीघा मुख्य व उपजाऊ भूमि में मेरे नाम एक इंच भी जमीन नहीं है। यह हाल मेरे अकेले का हो ऐसा नहीं है। लगभग 45 परिवारों के इस गांव में दलित जातियों के दो समुदायों चिनाल और लोहारों के 20 परिवारों में से सिर्फ दो परिवारों के नाम नाममात्र जमीन है। शेष सब उच्च जातीय लोगों के पास है। दलितों के पास अव्वल तो जमीन है ही नहीं, कुछ है तो वह गांव के बाहर हाशिये की जगहों पर है। जो कभी फालतू और खेती के अयोग्य रही होगी। जहां तक मेरा सम्बन्ध है, मेरी जमीने भी एक गांव से ऊपर सीधी चढ़ाई करीब 2 किमी की दूरी पर और दूसरी सीधी उतराई पर लगभग उतनी ही दूरी पर चंद्रभागा नदी के तट पर गांव जसरथ के सामने है।

इतना सब होने के बावजूद कभी-2 अपने उद्गम स्थान की यादें विचलित कर देती हैं। बहुत बड़ा दर्द महसूस होता है, जुदाई, अपने जड़ों से कटने का दर्द, कई बार तो मन में एक खौफ पैदा कर देता है। अपने को डाली से टूटे फूल की तरह अनुभव करता हूं। लगता है, अपने घर यानि आज के उस मिट्टी के मकान में जो सुकून था, उसे कहीं और नहीं पाया जा सकता। एक बेहद तीखा कड़बा मीठा दर्द उठता है सीने में, जो दूर कहीं तक यादों को ले जाकर छोडता है और कुछ समय तक निढाल बना देता है।    

कभी आबाद था यह चमन भी

फिर न जाने क्या हुआ

न गुल रहा, न गुलिस्तां

कुछ कुदरत ने मारा

कुछ आदमी ने छीना

कुछ तेरी बात, कुछ मेरी कहानी

आरजू है हर सांस से पहले

तेरा नाम आये मेरी जुवान पर।