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वन माफिया: जब रक्षक ही भक्षक बन जाये.. ?

हिमाचल प्रदेश जैसे शान्त एवं स्वच्छ कहे जाने वाले राज्य में भी कई बार कुछ ऐसा घट जाता है जो काफी विचलित कर देता है। इस प्रकार की घटना हाल ही में मंडी जिले के जंजेहली क्षेत्र में घटी। होशियार सिंह नामक एक वन रक्षक की लाश पेड़ पर लटकी हुई मिली। बताया गया कि वह अपने पीछे दो पृष्ठों का एक आत्महत्या का नोट भी छोड़ गया है और एक पत्र अपनी दादी जिसे वह बहुत चाहता था के लिए भी छोड़ गया है। उस पत्र यानि आत्महत्या के नोट में उसने अपनी मौत का जिम्मेदार अपने विभाग के लोगों को ही बताया है।

होशियार सिंह ने लिखा है कि प्रदेश में वन माफिया काम कर रहा है जिसके साथ विभाग के अधिकतर अफसर मिले हुए हैं। उसी नोट में उसने कुछ विभाग से तथा कुछ अन्य लोगों के नाम भी लिखे हैं जो क्षेत्र में कीमती लकड़ी का गैर-कानूनी धंधा करते हैं। जिस प्रकार देश के अलग-अलग भागों में अलग-2 माफिया काम कर रहे हैं, उसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में ‘वन माफिया’ और ‘ड्रग माफिया’ सक्रिय हैं। जाहिर है यह व्यवस्था में बैठे लोगों के सहयोग और साथ के बिना संभव नहीं हो सकता।

ऐसा नहीं है कि इस प्रकार का कांड पहली बार सामने आया हो, इससे पहले भी प्रदेश में हरे पेड़ों को काटने के न्यायालय के आदेश के बावजूद यहां सक्रिय माफिया, वनों को उजाड़ते रहे पेड़ों को काटते रहे, वनों को उजाड़ते रहे हैं। जिसके बहुत से उदाहरण मिल जायेंगे। इस घटना को पढ़ने पर मुझे 1985 की वह घटना बरबस ही याद आ गई, जो मेरे साथ घटी थी। 1985 में भारत सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय से हिमाचल प्रदेश में ‘एक्जेक्यूटिव ट्रेनिंग’ पर आया था और कुल्लू में पोस्टिंग हुई थी। इसी बीच कुल्लू और मनाली के बीच मनाली से 15-20 कि.मी. दूर ब्यास नदी के बाएं तट पर जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा खरीदा। जिस पर मैं अपने लिए घर बनाना चाहता था। मेरे उस प्लॉट और संपर्क सड़क के बीच में करीब 300 मीटर के क्षेत्र में दियार का एक घना जंगल पड़ता था। उस जंगल से गुजर कर मैं जब अपने प्लॉट पर पहुंचता था तब तन, मन और मस्तिष्क की तमाम थकान दूर हो जाती थी और मैं बिलकुल तरोताज़ा अनुभव करता था।

मैं उस प्लॉट को विकसित करने व मकान बनाने, योग्य बनाने की गर्ज से पास में ही एक मकान किराये पर लेकर रहने लगा। मैं यहां रहता था वहां से मेरे प्लॉट से लगता जंगल साफ-2 दिखता था। कुछ ही दिनो के अन्दर मैंने महसूस किया कि उस जंगल में रात को कोई आता जाता है, क्योंकि कुछ रोशनियां इधर-उधर चलती हुई दिखती थी। एक दिन मैंने इस जंगल जिसे ‘सोम वण’ के नाम से जाना जाता है, से गुजरते हुए अच्छे से निरीक्षण किया तो पाया कि कुछ पेड़ों के ठूंठ ताज़ा बनाए गए लगे। इस प्रकार कुछ दिन और निरीक्षण करने के बाद मैंने कुल्लू में अरण्यपाल (कंजरवेटर फॉरेस्ट) के पास शिकायत की। लेकिन स्थिति में परिवर्तन नहीं हुआ और जब दुबारा वन विभाग के कार्यालय गया तो अचानक एक युवा भारतीय वन सेवा के अफसर सीएस सिंह से भेंट हो गई। अब क्योंकि वह भी युवा था और मैं भी 32 साल की उम्र का था। उससे उस उपलक्ष में बात हुई, उसने गैर कानूनन वृक्ष कटाने को रोकने का भरोसा दिया और उसे पूरा भी किया। बहुत ईमानदार और निरपेक्ष किस्म का अधिकारी जो अभी कुछ दिन पहले सेवा निवृत हो गया। उस पूरे सेवाकाल के दौरान उसे कई तरह के अपमान सहने पड़े, कई जांच झेलनी पड़ी। उस अफसर की बरबस ही याद आ गई, जब होशियार सिंह के मौत का समाचार पढ़ा।

उस युवा वन रक्षक का अंतिम पत्र यह प्रमाणित करने के लिए काफी है कि खेत की बाड़ ही खेत को खा रही है। जिन लोगों को अच्छा खासे वेतन-भत्ते देकर वनो की रक्षा के लिए तैनात किया जाता है वही वन माफिया में शामिल हैं। उनकी देख-रेख में ही सैंकड़े वृक्ष काट दिये जाते हैं। होशियार सिंह ने पत्र में यह भी बताया कि वह अपने वरिष्ठ अधिकारी को इस प्रकार के वन कटान की रिपोर्टें देता रहा लेकिन उन पर कभी कार्यवाही नहीं हुई। कारण साफ था कि उस माफिया में शीर्ष तक के समस्त लोग सम्मिलित थे।

प्रदेश में वन काटुओं का वन माफिया बनने तक का सफर भी काफी पुराना है। पहले पेड़ काटने वाला एक-आध व्यक्ति होता था अब पूरा गैंग बन चुका है। इस माफिया की जड़े बहुत गहरी हैं, जिन्हें सींचने का कार्य राजनेता और उच्च पहुंच के व्यक्ति करते हैं। नीचे से ऊपर तक सबका हिस्सा तय रहता है। होशियार सिंह ने अपने पत्र में लिखा है कि वन विभाग के उच्च अधिकारियों की संपतियों की जांच होनी चाहिए। इस बात का समर्थन हम भी करते हैं। क्योंकि प्रदेश में कार्यरत वन विभाग के अधिकारियों में अधिकतर की संपति उनकी आय के ज्ञात स्रोतों के मुक़ाबले में बहुत अधिक दिखती है।

वन कटान में स्थानीय लोगों का हाथ अवश्य होता है, यदि स्थानीय लोग चाहें तो इसे रोक सकते हैं, लेकिन बात है बिल्ली के गले में घंटी बांधने की। वन कटान का कार्य भी इतनी सफाई से होता है कि आसानी से पता ही नहीं चलता कि अमुक स्थान पर कोई पेड़ था और जिसे काट दिया गया है। इस विषय में अधिक चिंता का सबब तो यह कि शीर्ष पर बैठे लोग इस प्रकार के मामलों को संजीदगी से नहीं लेते। इस मामले में भी ऐसा ही हुआ, समाचार पत्रों द्वारा संपर्क करने पर वन विभाग के सचव तथा पुलिस आला अधिकारी गोल मोल जबाब देते हैं तो वन मंत्री का फोन उठाया नहीं जाता।

वैसे मामले ने तूल पकड़ ली है और विभाग के कर्मचारियों ने घटना के विरोध में एक दिन का सामुहिक अवकाश लेने का निर्णय लिया है। यद्यपि विरोध का ज्यादा ज़ोर तो होशयार सिंह की मौत और उनकी अपनी सुरक्षा के मामले को लेकर है। फिर भी उम्मीद की जानी चाहिए कि इसी बहाने सही सरकार व जनता अपनी इस अनमोल धरोहर के प्रति कुछ तो सकारात्मक सोचेंगे।

होशियार सिंह ने अपनी दादी को लिखे पत्र में एक व्यक्ति विशेष का देकर कहा है कि वह व्यक्ति जो उसका तत्कालिक अधिकारी भी है, चोर है उसने ही पेड़ कटवाए हैं। वह लोगों को मजदूरी नहीं देता है। अपनी खुदकशी के नोट में होशियार सिंह ने यह भी लिखा है कि वह टीडी पर लोगों से सरकार द्वारा तय किए गए से अधिक पैसे बसूलता है। होशियार सिंह किस तरह का आदमी था इसका पता सुप्रीम कोर्ट से किए उसके निवेदन से लगता है, जो उसने मरने से पहले लिखे नोट में कहा है, गरीबों को मुफ्त टीडी दी जाए। आगे भी उसने लिखा है वन रक्षक निहत्थे वन माफिया के लोगों का सामना नहीं कर सकते इस लिए उन्हें हथियार दिये जायें।

अब इस प्रकरण को एक वन रक्षक की मौत का विवाद बना कर केस का नक्शा न बिगाड़ दिया जाये इस बात का डर है। हम सब चाहते हैं कि मामले की जांच गहराई से की जाये और जिम्मेदार व्यक्तियों तथा कर्मचारियों पर सख्त कारवाई हो। एक बात को ज़ोर देकर कहना चाहता हूं कि वन विभाग के अधिकारियों व कर्मचारियों की संपतियों की जांच अवश्य हो। होशियार सिंह की मौत को अत्महत्या या हत्या न कह कर बलिदान कहा जाना चाहिये और आशा करनी चाहिये कि वह बेकार नहीं जाएगी।

 

लाल चंद ढिस्सा

पूर्व आईसीएस (IAS) व सामाजिक कार्यकर्ता

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