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Corona Effect: अपना कहने के लिए कुछ कम ही रहता है

Corona Effect: अपना कहने के लिए कुछ कम ही रहता है । ‘कोरोना’ के उत्पाद तालाबंदी ने मेरे लिए जीवन पर्यन्त स्मरण रखी जाने योग्य कई घटनाएं पैदा की हैं। इस कड़ी में एक घटना को सांझा करना चाहता हूं। मैं अपनी पत्नी के साथ आज जहां रहता हूं, यद्यपि हमें यहां आये हुये कुछ 10 साल से अधिक नहीं हुए हैं। जैसा कि बता चुका हूं कि मेरा जन्म लाहौल (Lahoul) के एक छोटे से गांव जहालमा में हुआ और मुझे पढ़ाई के लिए घर से बाहर आना पड़ा।

पहले स्कूली पढ़ाई के लिए ‘फ्री एजुकेशन हॉस्टल’ मनाली (Manali),  कुल्लू (Kullu), जिसे पंजाब सरकार ने लाहौल-स्पिती (Lahoul-Spiti) के बच्चों के लिए शुरू किया था तथा उसी के द्वारा चलाया जाता था। क्योंकि उस ज़िले में एक तरफ जहां कठिन स्थलाकृति और अत्याधिक ठंडी जलवायु की समस्या थी, वहीं पर स्कूलों की भी कमी थी। इस क्षेत्र के हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) में सम्मिलित हो जाने बाद उस हॉस्टल को कुछ समय तक हिमाचल सरकार (Himachal Government) ने चलाया। इसी स्कूल से 1970 में मैट्रिक पास की और कॉलेज की पढ़ाई के लिए नये खुले डिग्री कॉलेज कुल्लू में पीयूसी में दाखिला लिया। तब शिक्षा 10+2+3 के पैट्रन पर चलती थी।

आगे की पढ़ाई और फिर नौकरी, उसके बाद समाज कार्य, जीवित रहने का ‘अस्तित्व के लिए संघर्ष’, सब मिला कर कोई 44 साल तक किराये के मकानों में ही रहता रहा/रहे। सच कहूं तो इस पूरे जीवन में अपने लिए कुछ अधिक कर भी नहीं पाया। या यह कहना अधिक सही होगा कि करने का सोचा ही नहीं। विवाह हुआ, बच्चे हुए उनको एक आम आदमी के बच्चों की तरह पढ़ाया और जीवन में जितनी तकलीफ़ें उठाई जा सकती थी, श्रीमति जी के साथ सांझा उठाई।

जो जीवन मैंने चुना उस प्रकार के जीवन में अपना कहने के लिए कुछ कम ही रहता है। फिर भी साधनहीनता के बीच में भी अपना कहने के नाम पर एक अदद घर की जरूरत महसूस होती रही। इस बीच कई घर बदले, कुछ अपनी मर्जी और खुशी से तो कुछ मालिक मकान के दबाव और दुखी मन से। किराये वाला अंतिम मकान कहने को तो कुल्लू के सब से बड़े आराध्य देव रामायण के राम के मंदिर के निकट रघुनाथपुर में था। लेकिन पानी की कमी, शौचालय की असुविधा सहित अनेक कमियों के बावजूद कुछ साल उसमें भी गुजारे। इस बीच बच्चों ने और श्रीमति जी ने भी उस जगह को बदलने की बात कहनी शुरू कर दी थी। बाद में पता चला कि मकान मालिकों की ओर से कुछ अनावश्यक दखल तथा बन्दिशें लगाई जा रही थी।

इस तरह के दबावों के चलते के बीच में यहां बाशिंग गांव में चार कमरों का यह बना बनाया मकान खरीदना पड़ा। मकान छोटा, पारम्परिक और पुराने ढंग से बना हुआ था। आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित तो था नहीं, बस गुजरे लायक था। सबसे अच्छी और बड़ी बात थी, मकान के चारों तरफ ऊंचे-2 पेड़ और सामने कुछ ही दूरी पर स्वच्छंद बहती ब्यास नदी।

तभी से हर साल अप्रेल के महीने में मेरे पड़ोस में मेरी एक पड़ोसन रहने के लिए आती थी और दो महीने रहने के बाद कहीं चली जाती थी। कभी मेरे सामने, कभी आगे, कभी पीछे, कभी दायेँ तो कभी बायें। घूमती रहती, चहकती रहती थी। मैं भी उस के होने को खूब एंजॉय करता था। वह कोई और नहीं एक नन्ही सी, प्यारी सी कोयल (Koel) थी। जो हर साल दो महीने तक कूक कर मुझे आनंदित करती थी। उसका गाना, कूकना, झांकना मुझे एक तरह स्वर्ग (Swarg) में पहुंचा देता था। मैं भी हर साल उसके आने का बेसब्री से इंतज़ार करता था।

इस साल भी उसी तरह प्रतीक्षा करता रहा, परन्तु आधा अप्रेल बीत जाने तक भी मेरी प्यारी व सम्मानित छोटी अतिथि नहीं आई तो मुझे चिंता होने लगी। इस चिंता को श्रीमति जी से भी सांझा कर चुका था। अब इस वर्ष तालाबंदी (Lockdown) चल रही थी इस लिए दिनचर्या को भी कुछ बदल दिया था। जहां पहले सुबह 5 बजे उठ जाता था अब 6:30 पर बिस्तर छोडता हूं। आज से पांच दिन पहले मेरी नींद ही कूक से टूटी, विश्वास ही नहीं हुआ लेकिन बाहर जाने पर पाया यह कोयल की ही आवाज़ थी। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा।

कल दिन के समय जब मैं अपने घर के आंगन में बैठा अपनी एक पुस्तक (संविधान के सामाजिक अन्याय ) पर काम कर रहा था, मेरी पड़ोसन अचानक एक बार फिर बोली। मैंने दूर नेरचौक में बैठी अपनी छोटी बेटी से फोन पर कोयल की आवाज़ सुनाने को कहा। क्योंकि आज के दिन नेट पर हर तरह की सूचनाएं उपलब्ध हैं। संतुष्टि हुई कि वह कोयल ही थी।

खैर! मैंने उसके देर से प्रकट होने के कारणों पर सोचना शुरू किया। अब उससे तो सीधे पूछ भी नहीं सकता था, उसके नाराज हो जाने का डर जो था। दो तीन दिन सोचने के बाद कारण समझ आया। इस साल की तालाबंदी ने सब को अंदर बंद का दिया था। मेरे घर के चारों तरफ की जमीनो के मालिकों ने इस बेकार के समय का सदुपयोग करते हुए, कई बड़े-2 वृक्ष काट डाले और अन्यों की छंटाई कर दी थी। इस लिए मेरी पड़ोसन को यह जगह शायद रहने काबिल नहीं लगी तथा कहीं और रहने लगी है। अब वह दिन में एक आध बार आ कर बोल जाती है।

शायद यह बताती है कि मानव ने अपनी तरह उसे भी अनुकूलन करने का हुनर सिखा दिया है। कल सुबह ही पता चल पाया कि उसने अपना नया ठिकाना कहां बनाया है? आप को भी बता देता हूं। मेरे बिलकुल सामने ब्यास (Beas River) के उस पार जहां दिल्ली की एक कंपनी का जड़ियों-बूटियों का एक बड़ा ‘हर्बल गार्डन’ है और जिसके चारों ओर बहुत से ऊंचे-2 पेड़ हैं, मेरी पड़ोसन ने अपना नया ठिकाना वहीं बनाया है।

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