दिल्ली दंगा मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय में तुषार मेहता ही दिल्ली सरकार के वकील होंगे। यद्यपि कुछ दिनों तक यह मामला दिल्ली के मुख्य मंत्री केजरीवाल और उपराज्यपाल बैजल साहब के बीच लटका हुआ था। लेकिन अब दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार ने साफ कर दिया है कि देश के सालिसिटर जनरल तुषार मेहता ही उसका पक्ष रखेंगे। इधर दिल्ली की केजरीवाल सरकार जिस की शुरूआत ही अजीब से हालातों में हुई थी। अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोधी व लोकपाल की मांग को ले कर चलाये गए आन्दोलन के कंधे पर चढ़ कर हासिल की गई सत्ता, हिचकोले खाती नैया के कप्तान बन गए थे।
काफी समय पहले अपनी एक फेस बुक पोस्ट में नई राजनीति करने के वादे के साथ सत्ता प्राप्त करने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को ‘परिस्थितिजन्य मुख्यमंत्री’ लिखने पर मेरे एक एफबी मित्र ने उसका अर्थ जानना चाहा था, तब तो मैं टाल गया था। लेकिन कब तक टाल सकता था हर रोज कोई न कोई ऐसा प्रसंग आ ही जाता है, जिस में साहब के छिलके उतरते चले जाते हैं और नया रूप सामने होता है। आज के इस कोरोना के उपचार के लिए चयनित लॉकडाउन की ही बात करें। यहां यह साफ दिख जाता है कि इस देश ही नहीं अपवादों को छोड़ पूरी दुनिया के शासकों और शासितों की भूमिकाओं व जीवन पद्वतियों, आदर्शों और मूल्यों में जमीन और आसमान का फर्क है। यहां तक कि आज की लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में चुने गए प्रतिनिधियों की जीवन शैली और चुनने वालों की जीवन शैली में वही अन्तर है जो सल्तनतों के समय में था। आज भी वे राजा और प्रजा बने हुए हैं, कभी भी प्रतिनिधि सरकार और नागरिक नहीं बन पाये। चुने जाने के बाद प्रतिनिधियों का चरित्र बदल जाता है और वे राजा बन जाते हैं।
राजा यानि विष्णु का अवतार, जो स्वाभाविक तौर पर पूजनीय होता है। जो कभी भी गलत नहीं होता। एक तरफ तो इस मानसिकता वाले शासक और दूसरी ओर पांच साल के लिए ठेकेदारी दे कर फारिग होने वाले मजबूर, निरीह और चापलूस जमातों का समाज। चुने जाने से पहले सिर्फ 15 दिनो तक चुनाव प्रचार के दौरान राजा को लोग प्रजा नहीं नागरिक लगते हैं और उनकी उसे जरूरत रहती है। उस दौरान राजा साहब को दिन में जितनी बार कोई मिलता है वह आदमी नहीं वोटर होता है, इस लिए हर बार नमस्ते ठोकता है लेकिन चुने जाने के बाद वह प्रतिनिधि नहीं राजा बन जाता है, इस लिए भाड़ में जाए जनता का भाव मन में लिए राजा साहब मस्ती में बढ़ जाते हैं।
यही नहीं इस कोरोना प्रसंग ने यह भी बता दिया है कि जितने भी लोग अपने को कार्यकुशल शासक-प्रशासक मानने लगे हैं, सही में वे सब इस देश के गरीब, मजबूर, दलित, आदिवासी और बहुरंगी दुनिया के प्रतिनिधियों के रूप में व्यवस्थापक और प्रबन्धक बनने के योग्य नहीं हैं। जिन लोगों ने कभी गरीबी, भूख और सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक भेदभाव देखा व महसूस न किया हो वे क्या जाने उस जनता का दर्द। जिसका उदाहरण है कोरोना के इलाज या बचाव के रूप में सुझाए गये एकांतवास, सामाजिक/शारीरिक दूरी (2मीटर)। यह सब इस देश की जनता के एक बड़े हिस्से के लिए एक बड़े सपने से कम नहीं है।
यहां पर ऐसे बहुत से लोग हैं जो खुले आसमान के नीचे पैदा होते हैं, खुले आसमान के नीचे जीवन गुजारते हैं और खुले आसमान के नीचे मर भी जाते है। फिर एक वर्ग ऐसा भी है जिस के पास सिर पर छत के नाम पर एक 80 वर्ग फुट के एक कमरे में औसतन 5 व्यक्ति, उसी में रसोई, बैठक, सोना सब कुछ और उस समाज के लिए रोग का उपचार ‘सोशल डिस्टेन्सिंग’, यद्यपि सही में इसे ‘फिज़िकल डिस्टेन्सिंग’ कहा जाना चाहिए। उपचार का दूसरा सुझाव ‘सेनीटाइजर’ यानि कीटाणु नाशक सफाई, जो 100 रुपये 100 मिली मिलता है। भूख से मरने वाले को चुनना है कि पेट भरे या सेनिटाइज़र से हाथ धोये।
यह सब यह बताने के लिए काफी है कि हमारे प्रतिनिधि, राजा बन कितनी असल दुनिया में जीते है? तालाबंदी में छुट देने पर सबसे पहले शराब की दुकानें खोलने की मंजूरी देना साफ करता है कि हम और हमारे प्रतिनिधि कितने पास-2, कितने करीब-2 हैं? प्रजातन्त्र में जब तक प्रतिनिधियों और जनता की पृष्ठ भूमियों में अन्तर रहेगा तब तक यह रिश्ता राजा और प्रजा का ही बना रहेगा। कुछ देशों तथा समाजों में इस कठिनाई के समय में भी लोकतन्त्र को जीवित देखा है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कोरोना ग्रसित होने पर एकांतवास में चले गए, वहां से काम करते रहे, ठीक हुए और बाहर आकर काम जारी रखा। अपने लोगों को नागरिक भी बनाये रखा और उनसे संवाद भी।
इसके विपरीत अधिकतर प्रजातंत्रों में संवाद एक तरफा था, घोषणाएं वे भी तुगलकी। ऊपर से सोने पे सुहागा अलग-2 तरह से कटे हुए लोगों के हाथों में देश की बागडोर। कुछ बेईमान राजनेता, कुछ निरंकुश नौकरशाह और कुछ टेक्नोक्रेट के हाथों में देश हो तो वे मनुष्य को हाड़-मांस का जीवित, चलते फिरते शरीर के बजाय मशीन में ढाल कर बनाई मशीन समझ कर राज करें तो यही होगा। जिंदा आदमी, सामाजिक आदमी, भावनाओं और अनुभूतियों भरा आदमी प्रतिक्रिया करेगा तो उनकी समझ में नहीं आयेगा, क्योंकि वे उस से कटे हुए लोग होते हैं। इसलिए उन्हें परिस्थितिजन्य नेता कहना उचित प्रतीत होता है। विशेषकर अरविंद केजरीवाल साहब तो इंजीनियर बनते-2 ब्योरोक्रेट, ब्योरोक्रेट बनते-2 समाज कार्यकर्ता, समाज कार्यकर्ता बनते-2 आंदोलनकारी, आंदोलनकारी बनते-2 राजनेता और राजनेता बनते-2 मुख्यमंत्री……, सही मंय एक विलक्षण व विचित्र व्यक्ति ।