ज़िन्दगी कोई ‘पोस्टर’ तो नहीं
जो कहीं भी,
किसी भी ईंट-पत्थर की दीवार,
किसी सूखे पेड़ पर
चिपका दी जाये,
यह तो सतत प्रक्रिया है
आती-जाती सांसों,
चढ़ते-उतरते भावों,
संवेदनाओं, अनुभवों
प्रेम और घृणा की।
ज़िन्दगी कोई ‘स्टिकर’ तो नहीं
जो किसी भी
फटे को ढकने
रंग-बदरंग चीथड़े पर
लगा दिया जाये ;
यह तो
अनन्त परिवर्तन धारा है
किसी का
किसी से अंतर करने का
प्रकृति के
निरन्तरता और बदलाव का।
ज़िन्दगी कोई ‘टिकिट’ तो नहीं
जो किसी भी
खाली-भरे
अच्छे बुरे लिफाफे
असली-नकली रसीद पर
चस्पा दी जाये
यह तो
मिलन की प्यासी
अविराम, अविरल बहती
जलधारा है।
यूं तो मैं लिखता ही नहीं
यूं तो मैं लिखता ही नहीं
यदि कभी कुछ लिखूं तो
अपने सीने के सुर्ख
लहू से ही लिखता हूं।
यूं तो मैं लिखता ही नहीं
यदि कभी कुछ लिखूं तो
धरती के कठोर
सीने पर ही लिखता हूं।
यूं तो मैं लिखता ही नहीं
यदि कभी कुछ लिखूं तो
कल्पना को नहीं
कटु सत्य ही लिखता हूं।
यूं तो मैं लिखता ही नहीं
यदि कभी कुछ लिखूं तो
परी कथाएं नहीं
शोषण-दमन का इतिहास लिखता हूं।
यूं तो मैं लिखता ही नहीं
यदि कभी कुछ लिखूं तो
वादियों और महलों की नहीं
मरू औ’ झौंपड़ियों की व्यथा लिखता हूं।
यूं तो मैं लिखता ही नहीं
यदि कभी कुछ लिखूं तो
उत्सव, मस्ती की बात नहीं
दर्द, आंसू, विध्वंस कथा लिखता हूं। (शमशी, 24.4.1992)