‘….(भूमि) पर पूर्ण स्वामित्व की समीक्षा की जानी चाहिए।’ ये शब्द हैं मेरी प्रस्तुतिकरण के संक्षेप से लिए गए, जो कि टाटा समाज विज्ञान संस्थान, मुंबई और जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय द्वारा 21-22 सितंबर, 1995 को, टाटा समाज विज्ञान संस्थान, देवनार, मुंबई में आयोजित विकास, विस्थापन और पुनर्स्थापन्न नीतियां और सामरिक नीति पर राष्ट्रीय सम्मेलन के दौरान। इस सम्मेलन में देश के उस समय के जाने पहचाने समाज कार्यकर्ताओं ने भाग लिया था। इन दो दिनों में उद्योग, खादान, बांध, मतस्य, शहरीकरण, पर्यटन, पर्यावरण और विपदाओं पर विस्तार से चर्चा भी हुई थी और कुछ निष्कर्ष भी निकाले गए थे।
उस सम्मेलन की कार्यवाही की रिपोर्ट के रूप में टाटा समाज विज्ञान संस्थान के ईमानदार मित्र डॉ. परसुरामन और जनांदोलन की नेत्री बहन मेधा पाटकर ने मुझे भी एक प्रति भेजी थी। जो तब से लेकर कागजों के ढेर में पड़ी हुई थी। अभी 3 मार्च को ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में छपे ‘उमर खालिद’ के लेख ‘द ट्राइबल वर्सिस डवलपमेंट’ ने मुझे 1995 के उस सम्मेलन की याद दी और उस रिपोर्ट पर से मिट्टी झाड़कर एक बार फिर देखने को मजबूर किया।
उमर खालिद एक उम्दा दिमाग, देश को इस प्रकार के स्वतंत्र, खुले और विश्लेषक युवाओं पर जहां गर्व होना चाहिए था, वहीं हमने उसके साथ एक साल पहले क्या व्यवहार किया यह सब जानते हैं। इस वर्ष फिर लगभग उसी तर्ज़ पर रामजस कॉलेज, दिल्ली विश्व विद्यालय, एक सेमिनार और उमर खालिद….। देश के तमाम देशभक्त उठ खड़े हुए। उसे उस सेमीनार तक पहुंचने ही नहीं देने के लिए। ऐसा लगा जैसे किसी ने देश पर आक्रमण कर दिया हो। सेमीनार स्थगित करना पड़ा फिर भी देशभक्त लोगों को शांति नहीं मिली, बड़ी तोड़फोड़ की गई। उमर खालिद ने अपने लेख, जो उस सेमीनार की प्रस्तुति का एक अंश था, में जनजातीय कार्य मंत्रालय के आंकड़ों के हवाले से कहा है कि 2004 में देश में आदिवासियों (यद्यपि यहां भी बहुत बड़ा घाल पेल है) की संख्या 8% थी लेकिन विकास कार्यों के कारण हुए विस्थापन में उनका हिस्सा 55% था। इसके अतिरिक्त उसने यह भी कहा है कि विकास का वर्तमान मॉडल के लिए सिर्फ ‘सेनसेक्स’ और जीडीपी के आंकड़े मामला बनते हैं, मूलभूत संकेतक जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा,मृत्युदर आदि नहीं। उमर खालिद ने एक और महत्वपूर्ण बात कही है वे आदिवासी ही हैं जो बड़े कंपनियों और उनके मुनाफ़ों के बीच खड़े हैं। यहां तक कि अंग्रेजों को भी उनके अधिकारों को मान्यता देनी पड़ी थी और 1908 का ‘छोटा नागपुर टेनेनसी एक्ट’ पास करना पड़ा था। आज के विकास की एक अन्य विशेषता बताई आदिवासी क्षेत्रों के अंदर के क्षेत्रों का सैनिकीकरण और विकास साथ-2 चल रहे हैं। आदिवासियों के विरोध को कुचलने के लिए सरकारी सुरक्षा कर्मियों के अतिरिक्त ‘सलवा जुडूम’ जैसे बदनाम सशस्त्र संगठन का गठन किया गया, जिसे बड़े कारपोरेट घरानो ने वित्तीय सहायता दी।
बताया गया कि यही कुछ था, उस शोध पत्र में जो उमर खालिद उस सेमीनार में पढ़ने वाला था। इसमें तो मुझे कोई ऐसी सामग्री नहीं लगी जिसके कारण उसे रोका जाना चाहिए था। या कि इस देश में उमर खालिद होना ही काफी है, इस प्रकार के व्यवहार और प्रताड़ना के लिए?
मैं बात कर रहा था टाटा समाज विज्ञान संस्थान, मुंबई और जनांदोलनों के राष्ट्रीय समन्वय जो एनएपीएम के नाम से अधिक प्रसिद्ध हुआ के द्वारा आयोजित सम्मेलन की। उस रिपोर्ट में यह कहा गया है कि 1951 से 1990 तक के विकास कार्यों के कारण देश के 2,13,00,000 लोग विस्थापित हुए थे और उनमें सिर्फ 53,70,000 लोगों की पुनर्स्थापना की गई थी। शेष 1,59,30,000 लोग प्रतिक्षा कर रहे थे पुनर्स्थापना की। यानि कि सिर्फ 25% लोगों को पुनर्स्थापित किया गया था शेष 75% नियति के सहारे। यह बात थी देश में आर्थिक सुधार लागू किए जाने (1991) से पहले की। 1991 के बाद देश में आर्थिक सुधार लागू किए गए। वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण का दौर चला। जीडीपी और सेनसेक्स बढ़ता गया। आदिवासी विस्थापित होते गए, किसान के आत्महत्या के मामले बढ़ते गए, बेरोजगारी बढ़ी, असंगठित क्षेत्र का शोषण बढ़ता ही चला गया।
उस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि 1990 में आदिवासियों की जनसंख्या कुल जनसंख्या का 7.5% थी लेकिन विस्थापन में उसका हिस्सा 40% था। जो उमर खालिद के अनुसार आज क्रमश 8% और 55% है। यानि कि जनसंख्या में 0.5% की और विस्थापन में 15% की वृद्धि। यही है वह विकास जिसके सहारे आज देश की जनता विशेषकर गरीब, दलित, आदिवासी, मजदूर, अल्पसंख्यक और सीमांत लोगों के खून से बड़े-2 कारपोरेटरों और उद्योगपतियों की दौलत की प्यास बुझाई जा रही है।
उसी प्रस्तुति में यह भी कहा था कि ‘हिमाचल प्रदेश में एक कानून भी है जोकि गैर हिमाचलियों और कृषकों को जमीन खरीद पर पाबंदी लगाता है लेकिन उस कानून को जब कभी तोड़ा भी गया है और सैकड़ों बाहर वालों ने जमीनें खरीदी हैं।’ उसके बाद एनएपीएम का एक राष्ट्रीय सम्मेलन सेवाग्राम महाराष्ट्र में 16-18 मार्च, 1996 में हुआ। उस सम्मेलन के दौरान एक स्वतंत्र पत्रकार नित्यनंद जयरामन ने मेरा एक साक्षात्कार ‘करेंट’ 6 अप्रैल, 1996 में छापा था। उसमें भी मैंने पर्यटन पर कहा था- ‘पर्यटन ने स्थानीय लोगों के लिए तकलीफ़ें अधिक पैदा की हैं, क्योंकि अधिकतर पर्यटन व्यवसाय पर बाहर के धनाढय लोगों का कब्जा है’ और भी ‘NAPM कोई ऐसी व्यवस्था (प्रक्रिया) स्थापित करने में मदद करे ताकि यदि केरल में कोई समस्या हो तो हिमाचल प्रदेश में हम उसके विरुद्ध खड़े होने के योग्य हों और सुनवाई हो।’
उसी दौरान जनसत्ता समाचार पत्र ने हिमाचल प्रदेश के उस अधिनियम की धारा 118 पर बहस करवाई थी जिसमें गैर हिमाचली और गैर कृषकों को जमीन खरीदने पर पाबंदी लगाई थी। उस पर मैंने लिखा था- ‘इतिहास साक्षी है कि आज तक ग्रामीण, पहाड़ी, आदिवासी, पिछड़ा और सीधा-सादा व्यक्ति जब भी शहरों, मैदानों, विकसित व अधिक चालाक क्षेत्रों में गया तो उसने क्या हासिल किया है? सिर्फ गुलामी और गुमनामी। क्या बन पाया है वह?कुली, रिक्शावाला, घरेलू नौकर और बाबू ही या इससे कुछ अधिक? इसके विपरीत शहरी, मैदानी, पढ़ा-लिखा,विकसित व अधिक सभ्य व्यक्ति समाज, गांव, पहाड़ों, आदिवासी क्षेत्रों व अविकसित क्षेत्रों में जाकर उनका मालिक, आका और राजा ही बना है।’ इस निष्कर्ष में मैंने लिखा था- ‘इस धारा (118) के खत्म कर देने से और कुछ हो न हो, लेकिन गरीब हिमाचली कृषकों का शोषण होगा और वे अपने ही घर में नौकर अवश्य बन जायेंगे।’
यहां इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि अधिकतर आदिवासी भूमि पर समुदाय का स्वामित्व होता है। जिसका आमतौर पर सरकार के पास न तो रिकॉर्ड है और न ही रखने की आवश्यकता समझी जाती है। अब भू-अधिग्रहण अधिनियम (जिसे भूमि पर जबरन कब्जा अधिनियम कहना उचित होगा) के अंतर्गत भूमि आदिवासियों से लेकर बड़ी-2 कम्पनियों को लगभग मुफ्त से दिया जाता है। उन आदिवासियों के नाम भूमि नहीं होने या भूमि के स्वामित्व अधिकार न होने के कारण उनको क्षतिपूर्ति या मुआवजा भी नहीं मिल पाता। यानि उन सीधे सादे गरीब वनवासियों (यह नाम आज की व्यवस्था चलाने वालों ने उन्हें दिया है) उनके आजीविका से बेदखल कर दिया जाता है, जिसके प्रति किसी का भी उत्तरदायित्व नहीं होता। यह पूरी की पूरी व्यवस्था जिन अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विकास और प्रगति के प्रति प्रतिबद्ध होने का दम भरती है।
कंपनी के मालिकों के साथ मिलकर उन्हें ‘सलवा जुडूम’ के हवाले कर देते हैं। जिस पर सर्वोच्च न्यायालय यदि कुछ न बोलता तो पता नहीं अपने ही भाइयों द्वारा न जाने कितने लोग कत्ल कर दिये जाते। इधर यदि बेचारे आदिवासियों की दशा पर तरस खाकर देश की सिविल सोसाइटी के लोग और बुद्धिजीवी लोग, उनकी मदद को आते हैं उन्हें भी डराया धमकाया और उनके विरुद्ध पुलिस केस बनाए जाते हैं। यह है आदिवासियों के विकास का नमूना।
इसके अतिरिक्त भी थे बेचारे आदिवासी इनके ही सक्षम, समर्थ और दबंग अनुसूचित जनजातीय भाइयों के द्वारा भी शोषित होते हैं। आज झारखंड, बिहार, छतीसगढ़ आदि के आदिवासी बच्चे दूसरे राज्यों में बाल मजदूरी कर रहे हैं। यहां तक कि अन्य राज्यों के अभिजातीय अनुसूचित जनजातीय के लोगों के घरों में लगभग बेगारी की तरह बाल मजदूरी करते हुए मिल जाते हैं। जिसका उदाहरण है हाल में हिमाचल प्रदेश में छुड़ाए गए चार बच्चे। उन गरीब विस्थापित आदिवासियों के बच्चों की तस्करी होती है।
आज के दिन भी विकास की दिशा नहीं बदली दिशा वही है, गरीब, दलित, आदिवासी मजदूरों से उनके साधन, उनकी आजीविका छीनो और बड़े कारपोरेटर और उद्योगपतियों के हवाले करो। हां! दशा में अंतर अवश्य पड़ा है। जहां 1990 में आदिवासियों की जनसंख्या 7.5% और विस्थापन में 40% की भागीदारी थी वही 2004 में यह क्रमश: 8% और 55% हो गई है। देश में आज एक तरफ अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है दूसरी तरफ भूख, बिना दवा से मरने वाले भी बढ़ रहे हैं। कुछ दिन पहले एक अंतर्राष्ट्रीय संस्थान द्वारा किए गए सर्वे की रपट छपी थी जिसके अनुसार इस देश के शिखर के 1% लोगों के कब्जे में देश की 60% सम्पति है और नीचे के 60% के पास मात्र 2%।
लाल चंद ढिस्सा
(पूर्व ICS व समाज सेवक)