लाहौल घाटी की उप घाटी पट्टन (मूलिङ्ग, घुशाल सहित गांव तांदी से तिन्दी तक), जहां संस्कृत (प्राच्य भारतीय आर्य) एवं भोटी (तिब्बती बर्मी) परिवार की भाषाओं का एक साथ अस्तित्व है। इससे पहले मैं अपने एक लघु लेख में इस क्षेत्र के गांवों के दोनों भाषा (परिवारों), हिन्दी एवं अभिलेख में प्रयुक्त नामों पर चर्चा कर चुका हूं। इस बार मैं उन गांव के रहने वालों के लिए प्रयुक्त सम्बोधन शब्द पाठकों से सांझा करने जा रहा हूं।

आज की आपा धापी भरी जिंदगी और तथाकथित विकास की अंधी दौड़ में, जहां व्यक्ति के पास सिर्फ अपने लिए समय नहीं है। सुबह से शाम, शाम से सुबह तक चौबीसों घंटे, बारहों महीने, पूरा का पूरा जीवन टाटा-बिडला-अंबानी-अडानी के लिए काट देता है। या तो उनके बनाए वस्तुओं की मासिक किस्तें चुकाने के लिए या फिर उन जैसा बनने के दिवा स्वप्नों को देखने में। भले ही यह भाषा, संस्कृति, नैतिकता, मूल्य, मर्यादाएं, सीमाएं उसके लिए कोई मायने न रखते हों। लेकिन हैं मानव जीवन के लिए आवश्यक।

यह कहा जाये तो अतिशोक्ति नहीं होगी कि हर सजीव वस्तु को जड़ों की आवश्यकता होती है। जड़ों के बिना न तो फल बनता और न ही फूल लगता है। कम से कम मानव के लिए तो यह और भी आवश्यक हो जाता है। क्योंकि भाषा उसे न सिर्फ पशुओं अपितु अन्य मानवों से भी अलग बनाती है। यह कहने में भी कोई हर्ज़ नहीं उसका अस्तित्व और पहचान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, भाषा।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि आज कुछ ऐसी परिपाटी चली हुई है कि व्यक्ति सिर्फ ‘फॉलोअर’ बन कर रह गया है। गति पर अत्यधिक विश्वास के कारण भी ऐसा हो सकता है। आज दुनियां डिजिटल हो गई है। हर कार्य तेज से तेज गति से किये जाने की होड़ चली हुई है।

भाषाओं की दुनियां में भी एक कठिन लड़ाई चल रही है। एक और बहु भाषाई व्यवस्था स्थापित करने की। दूसरी तरफ एक भाषा, एक राष्ट्र, एक संस्कृति और अंत में एक ट्रम्प…… । एक तरफ, हर चीज को बहुसंख्यावाद के पहिये तले रौंद डालने का प्रयास हो रहा है। भाषाई विविधता के स्थान पर एक ही भाषा थोपने का प्रयास पूरी शक्ति से किया जा रहा है। कई समाजों ने एक भाषा के भीतर जीना सीख रखा है। जिसका लाभ बहुसंख्यक समुदाय को ही मिलता है।

इस सब कशमकश के बीच व्यक्ति के पास कुछ समय बचता है तो वह समाज शास्त्री श्रीनिवासन के शब्दों में ‘संस्कृतिकरण’ में बिता देता है। संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके अंदर अपने से उच्च (सुपीरियर) समझे जाने वाले व्यक्ति, समाज का अनुकरण किया जाता है। जैसे इस देश में ब्रह्मणीकरण या हिन्दूकरण का रिवाज चल रहा है। यहां तक कि आदिवासी, जिनका कोई स्थापित और व्यवस्थित धर्म नहीं होता भी अपने को हिन्दू ही नहीं अपितु ‘उच्च कुल’ का हिन्दू प्रमाणित करने में अपना बहुत सा समय बिता रहे हैं। जिसमें उनकी सहायता बहुसंख्यक हिन्दू पुरजोर कर रहे हैं, क्योंकि आगे जा कर इसे बहुसंख्यकों के हित में ही जाना है।

लाहौल के उपरोक्त क्षेत्र के लोगों के साथ भी ऐसा कुछ चल रहा है। वैसे तो लाहौल का संस्कृतिकरण 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ से शुरू हो चुका था, जैसा कि क्षेत्र के तत्कालीन सह आयुक्त एएफपी हारकोर्ट साहब अपनी पुस्तक ‘ड़ हिमालयन डिस्ट्रिक्ट्स ऑफ कुल्लू, लाहौल एंड स्पिती’ में लाहौल की 1868-70 की जनगणना को आधार बना कर लिखते हैं (विस्तार से जानने के लिए पुस्तक संविधान के सामाजिक अन्याय खंड-1, देखें)। जिसके परिणामस्वरूप भारी संख्या में लोगों का हिंदूकरण ही नहीं ब्रह्मणीकरण और सामाजिक स्तरीकरण भी हुआ और वे उच्च जातीय समाज बन गए। कुछ लोगों का वैसा ही प्रयास (असफल) आज भी चल रहा है।

जैसे-2 व्यक्ति का विकास होता है, वैसे-2 उसे पहचान की भी ज़रूरत महसूस होती है। पहचान के लिए कौन से सामूहिक पक्ष का चयन किया जाये यह समय, स्थान, परिस्थितियों और उपलब्ध ऐतिहासिक एवं वर्तमान चिन्हों, प्रतीकों एवं मानकों पर निर्भर करता है। भारत में पहली व सब से महत्वपूर्ण पहचान या टाइटल है जाति का, उसके बाद शेष सब धर्म, क्षेत्र, परिवार आदि आते हैं। लेकिन कुछ लोगों और समाजों के पास इसके लिए कोई महत्वपूर्ण, सशक्त, प्रसिद्ध व चर्चित विकल्प नहीं होता इसलिए उन्हें किसी न किसी अन्य वस्तु या विषय पर निर्भर करना पड़ता है। यह पहचान कई बार गांव के नाम की भी होती है। यह सामूहिक पहचान यद्यपि पहचान के बजाय उसके लिए बंधन या कहें सजा ही साबित होती है। क्योंकि कहीं न कहीं उसकी वैयक्तिक पहचान को सामूहिक पहचान समाप्त कर ही देती है। लेकिन व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य बंधन होता है। इन सम्बोधन शब्दों या उपनामों का प्रयोग प्रासांगिक होता है और ये स्व:परिभाषित होते हैं।

अन्य विषयों या वस्तुओं जैसे जाति, प्रजाति, धर्म, सम्प्रदाय, गृह, कुल, कबीले के साथ-2 स्थानों के साथ भी अपनी पहचान बनाने की मनुष्य की प्रवृति रही है। जैसे राज्य, जिला, गांव, घाटी आदि। स्वाभाविक तौर पर यह प्रवृति अन्य क्षेत्रों की तरह लाहौल के इस क्षेत्र में भी रही है। एक अन्य ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहां कुछ गांव ऐसे भी हैं जिनके नाम उस गांव के किसी एक परिवार के साथ सम्बद्ध हैं। ऐसा लगता है कि उस गांव का नाम उस परिवार के नाम पर पड़ा हो। इसी प्रकार की स्थिति इस क्षेत्र के साथ लगते अन्य क्षेत्रों की भी है।
पहचान आम तौर पर प्रदत्त होती है और कई बार किसी संघर्ष और व्यक्तिगत आबद्धता का परिणाम और कठिनता से कमाई सच्चाई भी होती है। यह भी स्मरण रहना चाहिए कि देखा-देखी और बिना किसी ऐतिहासिक भूमिका और संघर्ष के प्राप्त तथा स्व:घोषित पहचान की उम्र हमेशा छोटी होती है।

हिन्दी                      संस्कृत परिवार की भाषा(ओं)                भोटी परिवार की भाषा(ओं)
मूलिंग वाला                             मुलिंगवाल                                    मुलिङ्पा
घुशाल वाला                         घुंशवाल                                        गुशपा
तांदी वाला                           तांतवाल                                        तंदिपा
ठोलंग वाला                         ठोङवाल                                         ठ्रोपा
लोट वाला                           लोटवाल                                         लोप्पा
रुडिंग वाला                         रूइङवाल                                        रुडिंगवा
शंशा वाला                          शंशवाल                                         शङपा
जाहलमा वाला                     जह्माल                                         यम्बा
जुण्डा वाला                         जुंहवाल                                         योम्बा
बारिंग वाला                        बरिंगवा                                        बरिंगवा/बरपा
किशोरी वाला                      किश्रवाल                                        खेव:
त्रिलोकनाथ वाला                 तुन्नवाल                                       ओम्ब:
हिंसा वाला                         हेंसवाल                                         मेफ:
मडग्रां वाला                       मणङई                                          मम्बा
तिन्दी वाला                      तिन्नवाल                                       तिन्निआल

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Comments

  1. बहुत अच्छी लेखनी है उस पर आप के विचार हमेशा मौलिक होने के कारण सदैव पठनीय होते हैं

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