दो दिन पहले समाज कार्यों में साथी रहे एक अन्य व्यक्ति ठाकुर चन्द्रसेन (Thakur Chandrasen) को कोरोना ने सदा के लिए हम से दूर कर दिया। मैं उन्हें ज़िला कुल्लू के ही नहीं हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) के संवेदनशील और बुद्धिजीवी राजनेताओं में एक मानता हूं।
इस अवसर पर उनके साथ के दो अत्यंत यादगार अनुभवों को सांझा करना चाहता हूं। पहला अनुभव तो 1996 का है, जब जनसत्ता (हिमसत्ता) द्वारा हिमाचल प्रदेश भू-सुधार अधिनियम की धारा 118, जो कि गैर-कृषक एवं गैर-हिमाचली को प्रदेश में भूमि खरीदने आदि पर रोक लगाती है, पर चलाई गई बहस में हिस्सा लेते हुए लिखे गए लेखों से संबन्धित है।
इस क्रम में कुछ महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुए थे। जिनमें तब के पत्रकार कुलदीप अग्निहोत्री, ठाकुर चन्द्रसेन (Thakur Chandrasen) और मैं भी शामिल था। हम में अग्निहोत्री जी तो इस धारा को हटाने के पक्षधर थे तो मैं उसे और अधिक कड़ा बनाने की बात करता था। जब कि ठाकुर चन्द्रसेन धारा 118 के उसी रूप से संतुष्ट थे।
दूसरा अनुभव 1997 का है, जब मैंने संस्था सद्प्रयास के मंच से कुल्लू में ‘पर्यटन’ पर एक तीन दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया था। जिस में ठाकुर चन्द्रसेन को एक वक्ता के तौर पर आमंत्रित किया था और उनका विषय था- ‘पर्यटन और मेजबान क्षेत्र तथा लोग’।
जिसमें ठाकुर चन्द्रसेन ने अपनी विद्वता से विषय के साथ पूरा न्याय किया था। विषय पर बोलते हुए उन्हों ने एक शेर बोला था- ‘सैर कर दुनिया के काफिल फिर यह ज़िंदगानी कहां? ज़िंदगानी रही तो यह नौजवानी कहां ?’
कल जब सुना कि वे नहीं रहे तो बहुत बड़ा धक्का लगा। श्रद्धा सुमन अर्पित।