सर्वोच्च न्यायालय के दो महत्वपूर्ण निर्णय समाचारों में हैं। पहला है ‘आधार’ पर और दूसरा है ‘आरक्षण’ (पदोन्नति में) पर। दोनों निर्णय (1) एक धीमे ज़हर जैसे हैं आम आदमी और आरक्षित वर्ग के लोगों के लिए। (2) सरकार के मनवांछित हैं।
‘आधार’ पर दिये गए सर्वोच्च न्यायालय के 4-1 के बहुमत निर्णय में न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ के ‘असहमति लेख’ में यह कहना बहुत महत्वपूर्ण है कि इस ‘गैर धन विधेयक’ को ‘धन विधेयक’ के तौर पर पारित करवाना ही संविधान के साथ धोखेबाज़ी थी।
जहां तक आधार के फ़ायदों की बात है, सरकार के दावों को न्यायालय ने सही ठहराया है। जबकि ज़मीन पर ऐसा है नहीं। कुछ उदाहरण और प्रश्न हैं- (1) हिमाचल जैसे छोटे राज्य में ‘छात्रवृति’ के मामले में 150 करोड़ का घोटाला सामने आया है, वह आधार के बाद का है। (2) दावा किया गया था कि आधार के बाद लाखों गैस कनेक्शन काटे गए थे, उससे अवश्य ही गैस की खपत कम हुई होगी, खपत कम का मतलब मांग का कम होना, मांग कम हो तो कीमत भी कम होनी चाहिए थी, लेकिन वह तो बढ़ ही रही है। (3) इधर कुछ परिवार ऐसे हैं जो साल के 12 सबसिडी वाले सिलेंडर प्रयोग करते ही नहीं लेकिन पता नहीं कैसे उनके सिलेंडर भी कम्पनी से निकल जाते हैं? (4) राशन (पीडीएस) के मामले में तो गरीबों का हर प्रकार का शोषण, यहां तक कि भूख से मौतों तक के समाचार हैं।
2. अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वर्ग के नौकरियों में पदोन्नति के मामले में भी कोर्ट ने सरकार के मन माफिक फैसला दिया है। इसने आरक्षित वर्गों के अंदर के विरोधाभासों को सही ढंग से सुलझाने के बजाए उलझा दिया गया है। जिसको फायदे मिले हैं वे लेते रहेंगे, जिन्हें नहीं मिल सके हैं वे टापते रहेंगे। राजनीति चलती रहेगी।
मेरे क्षेत्र में एक कहानी प्रचलित है- एक गरीब मां अपने आधा पेट बच्चों को ठगा कर रखती है कि त्योहार आएगा तो वह उन्हें घी, शहद, मीट और नाना प्रकार के पकवान परोसेगी, बच्चे उसी आस में प्रतीक्षा करते रहते हैं। जिस दिन वह त्योहार आता है और बच्चे मां से अपने वायदे को पूरा करने की बात करते हैं, तो मजबूर मां कह देती है- ‘बिशु गेया मुकी, घिऊ गेऊं शूकी।’ यानि त्योहार खत्म हो गया और सब खत्म। भूखे बच्चे हादसे को बरदाश्त नहीं कर पाते और मर जाते हैं……।
यही हालत है, देश के गरीब दलित, आदिवासी, सीमांत लोगों की।