हिमाचल प्रदेश में पढ़े जाने वाले समस्त समाचार पत्रों हिन्दी-अंग्रेजी में बड़े-2 अक्षरों का समाचार छपा था- ‘1831बजंतरियों ने शिवरात्रि मेले के निष्पादन (performance)’ को लिमका बुक रिकार्ड बनाया। तमाम मंडी खुश थी,क्योंकि मण्डी ने भी, कुछ साल से कुल्लू ज़िला द्वारा दशहरे में महिलाओं के डांस का रिकार्ड दर्ज़ करवाये जाने के तर्ज़ पर यह रिकार्ड दर्ज़ करवाया था।
जहां मेला शिवरात्रि में पधारे तमाम विशिष्ट व्यक्ति भी खुश थे, मंडी का प्रशासन खुशी से फुला जा रहा था, मंडी जिला के लोग खुश थे, शायद? लेकिन उन लोगों की खुशी की परवाह भी किसी ने की थी यह कहना कठिन है,जिनके नाम पर यह रिकार्ड दर्ज हुआ? ‘बजंतरी’ शब्द कोई सम्मानजनक सम्बोधन नहीं है, जैसा कि पंडित, ठाकुर आदि है। ‘बजंतरी’ का शाब्दिक अर्थ होता है, बजाने व पीटने वाला और यह कोई सम्मानित उपाधि नहीं है, जिस पर खुशी से झूमा जाये।
‘बजंतरी’ असल में दलित लोग होते हैं, जो देवी-देवताओं की यात्राओं में, उनके दर्शनों के समय, हर तरह के सामाजिक-धार्मिक-सांस्कृतिक अवसरों जैसे मेले, त्यौहार, विवाह, जीने-मरने के समय, उत्सव, यहां तक कि विशिष्ट व्यक्तियों के स्वागत, सांस्कृतिक कार्यक्रमों में इन (बजंतरियों) लोगों को नगाड़े-ढ़ोल, शहनाई, रणसिंगा, नारकाड़ और अन्य वाद्ययंत्रों को बजाना होता है। वह उनका एक पुश्तैनी पैशा है और उनको उसे करना ही होता है। जिसके लिए उन्हें सही पारिश्रमिक मिलता हो यह भी कोई आवश्यक नहीं है। बल्कि कई बार अनेकों बहाने लेकर इनके साथ अमानवीय व्यवहार भी होते रहे हैं।
मंडी को छोटी काशी भी कहा जाता है, इसलिए यहां इस प्रकार के वाद्ययंत्रों और संगीत का महत्व भी अन्य स्थानों से अधिक है। अखबारों में बड़े शान से चर्चा की गई है कि ‘देववाणी’ जो इस कार्यक्रम को नाम दिया गया है, ने पूरे पडल मैदान को मंत्रमुग्ध कर दिया था। इन ‘देव वाणी’ को बोलने/बजाने वालों की दशा के बारे में यह कहना है कि इनके द्वारा देवता का रथ छू लिया गया तो देवता अपवित्र हो जाता है और फिर उन ‘देव वाणी’ के ज्ञाताओं को जुर्माने देकर, देवता को शुद्ध करवाना पड़ता है।
आमतौर पर यह शुद्धिकरण किसी भेड़ या बकरे की बली से सम्पन्न होती है। उस जुर्माने को भरने से पहले उस ‘देव वाणी’ बोलने/बजाने वाले की अच्छी पिटाई भी कर दी जाती है। मंडी ही नहीं हिमाचल प्रदेश के अन्य स्थानों से भी इस प्रकार के काण्ड मीडिया में आये दिन छपते रहते हैं। इसके अतिरिक्त भी ‘मिड डे मील’ के मामले में भी इन‘देव वाणी’ बोलने/बजाने वालों के बच्चों को अलग से सबसे अंत में खाना दिया जाता है। इस प्रकार के प्रकरण भी कई बार मीडिया में सामने आए और कई बार मानव अधिकार पर हुई चर्चाओं में भी सामने आए हैं।
यह भी साफ किया गया है कि मंडी को छोटी काशी इसलिए कहते हैं क्योंकि इस शहर में ‘ब्यास’ नदी के तट पर पत्थरों से बने 81 पुरातन मंदिर हैं, जो इसके धार्मिक महत्व को और अधिक बढ़ाते हैं। यहां एक बात और कहना चाहता हूं जो अधिक महत्वपूर्ण है। मंडी के समस्त पुराने मंदिर ‘ब्यास’ नदी के किनारे पर स्थित हैं। लेकिन आज ब्यास नदी यहां से बहती ही नहीं। उसे ‘वर्तमान विकास’ ने निगल लिया है। उसे मंडी से 20-25 कि.मी. पहले बांध बनाकर दूसरी तरफ मोड़ दिया गया है और अब वह सलापड़ में जाकर सतलुज में मिलती है। यानि कि वर्तमान विकास की ऊर्जा की भूख के भेंट चढ़ गई ब्यास नदी, जैसे कि अन्य कई नदियां चढ़ गई। अब मंडी या छोटी काशी के 81 मंदिरों के करीब से ब्यास नहीं बहती, बहता है शहर का गंदा नाला। किस तरह का विरोधाभासी जीवन जी रहे हैं हम लोग, खास कर हमारे आका लोग जो संस्कृति, सभ्यता के नाम पर भी इठलाना चाहते हैं लेकिन उस संस्कृति-प्रकृति के साथ दौलत के लिए किसी भी तरह और किसी स्तर के खिलवाड़ से गुरेज नहीं करते। हां! संस्कृति के नाम पर दलितों का शोषण अवश्य जारी रहना चाहिये।
हां! लिमका बुक वालों ने उस अविस्मरणीय घटना को रिकार्ड किया और हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री, उनके कबीना के मंत्रियों के समक्ष ‘मंडी शिवरात्रि फेस्टिवल ओर्गेनाइज़िंग कमेटी’ के अध्यक्ष, मंडी जिला के उपायुक्त श्री संदीप कदम, आईएएस को प्रमाण पत्र भेंट किया। सब लोग खुश हुए। शहनाई, तुरही, रणसिंग… बजाने, ढोल-नगाड़े पीटने वाले 1,831 बजंतरी और प्रमाण पत्र कमेटी को ? है न कमाल, काम कोई करे श्रेय कोई ले। कर्म करते जाओ फल की चिंता मत करो।
बताया गया है कि इस प्रकार का रिकार्ड दर्ज करवाने का कार्य शायद गत वर्ष भी किया गया था, लेकिन तब 1806 बजंतरी भाग ले पाये थे। इस वर्ष प्रशासन ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दी थी तब जाकर यह संख्या 1,831 तक पहुंच पाई और आखिर रिकार्ड दर्ज करवा ही लिया गया। उस अविस्मरणीय घटना में जिला मंडी के लगभग समस्त क्षेत्र ने हिस्सा लिया। जिसमें मुख्य थे बाली घाटी, चुहार घाटी, सिराज, जंजहली, सनोर आदि-आदि। इन सब क्षेत्रों के‘बजंतरियों’ ने समां बांधा, मन मोह लिया…. सब कुछ हो गया…. रिकार्ड भी दर्ज हो गया, शासन-प्रशासन के लिए एक बड़ी उपलब्धि मुख्यमंत्री ने मंडी के देवी-देवताओं, कारदारों, बजंतरियों की प्रशंसा भी की और धन्यवाद भी दिया।
यहां एक अन्य बात बता दी जाए कि समां बांधने वाले, गाने-बजाने वाले तो ये बजंतरी होते हैं, लेकिन देवी-देवता के पूरे जिम्मेदार लोग ‘कारदार’ होते हैं। इन बजंतरियों के पास तो उन देवी-देवताओं की सम्पति यानि जमीन आदि में कोई हिस्सेदारी नहीं होती, सिवाय उन वाद्य यंत्रों के। उन देवी-देवताओं की सम्पति जमीन आदि पर कारदारों का कब्जा होता है।
इस मौके पर एक निर्णय यह भी लिया गया है कि उन बजंतरियों को कारदारों की तरह मानदेय दिया जाये ताकि वे उस ‘देव परिवार’ के सदस्य बने रहे। इस मौके पर यह भी कहा गया कि यह व्यवसाय खत्म होता जा रहा था, इस अविस्मरणीय घटना या प्रयोग के द्वारा विलुप्त (डाइंग) होने वाले इस व्यवसाय के पुनरुजीवन में सहायता मिलेगी।
इस बड़े तामझाम के लिए इतने युद्ध स्तर के प्रयास करने के बजाय जिले में अनुसूचित जातियों पर अत्याचार के मामलों पर ध्यान दिया जाता, स्कूलों में ‘मिड डे मील’ में इन दलितों के बच्चों के साथ भेदभाव को खत्म करने पर समय लगाया जाता। सबसे आवश्यक तो इन लोगों को इन के पारम्परिक कार्यों की तरफ लगाने के स्थान पर किसी अन्य मॉडर्न आर्थिक व्यवसायों पर लगाने का प्रयास किया जाता। इनके सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक स्तर को उठाने का प्रयास किया जाता। देवी-देवताओं के क्रन्दों को सांस्कृतिक पुनर्जागरण के रुप में प्राथमिकता से लेने के स्थान पर इनके लिए किसी प्रकार के स्थायी कार्यों (रोजगार) की व्यवस्था की जाती तो अधिक उचित होता।
लेकिन वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था की प्राथमिकता तो बड़ों के हित में कार्य करना रह गया है। प्रदेश में प्रशासन के अंदर बड़े पदों की संख्या बढाई जा रही है और छोटे पदों की संख्या घटाई जा रही है। शासन-प्रशासन में बड़े पदों का तो सृजन किया जा रहा है, जबकि बचत के नाम पर 2011 में ‘सफाई कर्मचारी केडर’ को ‘डाइंग केडर’ घोषित कर दिया गया है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि प्रदेश में सफाई कर्मचारी ही खत्म कर दिये गए। सफाई आज भी हो रही है, लेकिन ठेके पर। जाहीर है ठेकेदार भी कोई बड़े और ऊंची जात के ही होंगे लेकिन कर्मचारी वही लोग हैं। हां! फर्क पड़ा है अब वे उन बड़े लोगों की दया पर जी रहे हैं। जो वेतन, मजदूरी, ठेकेदार देना चाहेंगे और हर प्रकार से ठेकेदारों की शर्तों पर ही काम होता है। सफाई कर्मचारी अत्यधिक शोषण के शिकार हो रहे हैं। सरकार इस मामले से साफ निकल गई और अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो गई। इस प्रकरण को मैं 2011 से आज तक राज्य के मुख्यमंत्री, देश के प्रधानमन्त्री। राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग, राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग के अलावा हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय तक भी प्रेषित कर चुका हूं, लेकिन आज तक एक का भी कोई जबाब नहीं आया।
उससे भी आगे राज्य सरकार ने हर कार्य ठेके पर करवाना शुरू कर रखा है। विशेष कर शिक्षा जैसा क्षेत्र, इस विभाग में अध्यापकों की स्थायी भर्ती बहुत कम होती है। साधारणत: विद्या उपासक, पीटीए, कांट्रेक्ट आदि नाम से अध्यापकों की नियुक्ति होती है और वे सालों साल स्थायी होने की प्रतीक्षा करते रहते हैं। अन्य लोग तो बनें डाक्टर, इंजीनियर, आईएएस, कारपोरेटर और उद्योगपति परन्तु ये बनें ‘बजंतरी’। क्या उत्तम और नवीनतम मॉडल है विकास का?